प्लास्टिक की वाटर-बोतल फ्रिज में रखते समय सोचें ज़रूर ….

जब हम बिल्कुल छोटे थे और फ्रिज नहीं था घर में तो एक आईसबाक्स में बर्फ रख कर उस पर कांच की बोतलें रख दी जाती थीं.. साथ में फल-फ्रूट भी वहीं रख दिया जाता था।

फिर 10-12 साल के हुए तो फ्रिज आ गया लेकिन बोतलें वहीं कांच वाली पानी पीने के लिए इस्तेमाल की जाती थीं। और अधिकतर ये दारू की खाली बोतलें ही हुआ करती थीं….और उन दिनों अगर वैट-69 की खाली बोतल में पानी ठंडा रखा जाता था तो यह भी एक स्टेट्स-सिंबल से कम नहीं होता था।

और उसी जमाने में हम लोग देखा करते थे कि बच्चों को दूध पिलाने वाली बोतलें भी कांच की ही हुआ करती थीं …और हर रोज़ उन की एक लंबे से ब्रुश से सफ़ाई की जाती थी।

यह जो जब से प्लास्टिक आ गये हैं, बहुत गड़बड़ हो गई है। सब कुछ प्लास्टिक का आने से पर्यावरण का नाश तो हुआ ही है, साथ ही साथ हमारी सेहत पर भी बहुत प्रभाव पड़ा है।

कुछ चीज़ें हम लोग बस बिना सोच विचार के करते चले जाते हैं …जैसे कि पानी को स्टोर करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों का इस्तेमाल किये जाना। अकसर हम लोग अब तक यही सोचते रहे हैं ना कि जो पतली प्लास्टिक की थैलियां (प्लास्टिक की पन्नी) होती हैं वही पर्यावरण खराब करती हैं, अगर उन में हम कुछ खाने-पीने का सामान बाज़ार से लाते हैं तो यह हमारी सेहत के लिए खराब है।

कभी प्लास्टिक की बोतलों की तरफ़ जिन में हम लोग पानी भर कर फ्रिज में रखते हैं उस के बारे में तो कहां सोचते हैं। दरअसल कुछ दिन मैं नेट पर कहीं देख रहा था कि आट्रेलिया में बहुत बवाल मचा हुआ था कि बच्चों की जो प्लास्टिक की दूध वाली बोतलें हैं वे शिशुओं की सेहत के लिए अच्छी नहीं है… इन में से निरंतर Bisphenol-A (BPA) नामक कैमीकल निकलता रहता है जो मानव के लिए बहुत ही हानिकारक है।

मैं इतने दिनों तक यही सोच कर परेशान हो रहा था कि आट्रेलिया में निःसंदेह जो प्लास्टिक इस्तेमाल किया जा रहा है वह हमारे यहां के प्लास्टिक से तो उत्तम ही होगा। इस में तो कोई शक नहीं होना चाहिए।

लेकिन जिस तरह से हम इतने वर्षों से प्लास्टिक की बोतलों में पानी फ्रिज में रखते हैं ….यह भी एक गड़बड़ मामला तो है ही। और एक बात, प्लास्टिक की बोतल में पानी पीना कोई ऐसी बात भी नहीं कि इसे एक बार पीने से आदमी बीमार हो जाता है, लेकिन चूंकि ये कईं कईं वर्षों, कईं दशकों तक चलता रहता है इसलिए यह हमारे शरीर में बीमारीयां तो लाता ही है।

इस में कोई शक नहीं है कि प्लास्टिक की बोतलों में निरंतर पानी पीते रहना सेहत के लिए ठीक नहीं है, इसलिए मैंने गूगल अंकल के साथ ज़्यादा माथा-पच्ची नहीं की। बस एक लिंक दिखा जिसे यहां लगा रहा हूं —इस एक लिंक पर भी इस विषय के बारे में काफ़ी जानकारी दी गई है —Are plastic bottles a health hazard? –इस में अच्छे से बताया गया है कि इन बोतलों की वजह से हम कौन कौन सी आफ़त मोल ले रहे हैं !!

अच्छा एक बात शेयर करूं — जब किसी बात के बारे में पता चलता है तो उस का फायदा तो होता ही है। जब मैंने इस बात की चर्चा घर में की तो सब से पहले तो यही प्रतिक्रिया की आज कल के फ्रिज कांच की बोतलों का वजन कहां सह पाते हैं…लेकिन अगले दो चार दिनों में पानी के लिए कांच की बोतलें भी फ्रिज में दिखने लगीं। बड़ा अच्छा लगा यह देख कर…मैं कांच की बोतल से ही पानी लेना पसंद करता हूं …एक बात नोटिस की है कि सेहत के लिए तो यह सेहतमंद है ही, इस का स्वाद भी प्लास्टिक की बोतल वाले पानी से कहीं बेहतर होता है।

हमारे फ्रिज में रखी पानी की बोतलें — इस बात का प्रूफ़ कि हम ने वापिस कांच की बोतलों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है …..अब आप कब यह नेक काम कर रहे हैं? मुझे लिखियेगा…..

लिखते लिखते ध्यान आया कि यार, इतनी क्रांतिकारी सी बात लिख रहा हूं तो इस से पहले एक बार अपने घर के फ्रिज में झांक कर तो देख लूं ….और जो देखा उस की तस्वीर यहां लगा रहा हूं। कांच की बोतलें आप देख सकते हैं।

एक बात और ..प्लास्टिक की बोतलें महंगी से महंगी हमारी सेहत के लिए खराब तो हैं ही , लेकिन हम लोग एक और बहुत गलत काम करते रहते हैं …ये जो मिनरल वाटर की बोतलें, कोल्ड-ड्रिंक्स की खाली प्लास्टिक की बोतलें होती हैं ये एक बार ही इस्तेमाल करने के लिए बनती हैं, लेकिन इन्हें भी कितने समय तक बार बार पीने वाला पानी पीने के लिए हम इस्तेमाल करते रहते हैं।

बस जाते जाते यही बात कहना चाहता हूं अगर आपने कल से अपने फ्रिज में कम से कम एक कांच की बोतल ही रखनी शुरु कर दी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा, हो सकेगा तो कमैंट में लिखियेगा।

अब मशीनें खरीदी गईं हैं तो कमाऊ पूत भी बनेंगी …

कुछ दिन पहले मैं अंबाला अपने एक मित्र के पास गया हुआ था – घर पर नहीं था, बीवी के साथ कहीं गया हुआ था उस का चेक-अप करवाने।
घर आया तो बताने लगा कि जिस जगह वह अपनी श्रीमति का चेकअप करवाने गया था, वहां बता रहा था कोई मशीन आई हुई थी। बता रहा था कि अस्पताल की डाक्टर कहने लगी थी कि यह एक टैस्ट हो रहा है—वैसे तो बाहर एक हज़ार का होता है लेकिन आज यह केवल एक सौ रूपये में होगा। आप दोनों ही यह टेस्ट करवा लें।

बता रहा था कि अब मैं क्या कहता? –सो, उस ने भी वह टैस्ट करवा लिया। टैस्ट का नाम उस ने बताया – बी.एम.डी –अर्थात् ऐसी मशीन जिस के द्वारा किसी की हड्डीयों की सेहत का पता चलता है— और मेरा मित्र एवं उन की अर्धांगिनी दोनों एकदम स्वस्थ —इसलिए मैंने उन की रिपोर्ट देखनी तक ज़रूरी नहीं समझी। वैसे वह बाद में बता रहा था कि दोनों का टैस्ट नार्मल आया है।

इस तरह के हड्डी की सेहत को जांचने के लिए कैंपों के बारे में मैं पहले भी सुन चुका हूं… हमारे शहर में भी कईं बार लग चुके हैं –
सेहत से संबंधित विषयों की जानकारी पाने के लिए एक अति विश्वसनीय साइट है – मैडलाइन प्लस। इस साइट पर इस टैस्ट से संबंधित जानकारी आप इस लिंक पर क्लिक कर के जान सकते हैं — Bone mineral density test.

इस के बारे में कोई विशेष चर्चा मैं इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे देश के लोगों को विशेषकर महिलाओं को इस टैस्ट से कहीं ज़्यादा अच्छा खाने की ज़रूरत है। काश, ये टैस्ट करवाने वाली महिलाएं 100 रूपये के गुड़-चने ही खा लें तो कुछ तो बात बन जाए।

बात केवल इतनी सी है कि क्या हमें किसी महिला को देख कर यह पता नहीं चलता कि वह कितनी कमज़ोर है, कितनी बलिष्ठ है, कितना परिश्रम करने वाली है….और भी सेहत से जुड़ी बहुत सी जानकारियां किसी को भी देखने से लग जाती हैं। ऐसे में कैंपों में सभी का टैस्ट करवाने का क्या औचित्य है, यह मेरी समझ से परे है।

चलिए किसी आर्थिक तौर पर कमज़ोर वर्ग से संबंधित महिला का आपने टैस्ट कर लिया — रिपोर्ट आ गई कि उस की हड्डीयां कमज़ोर हैं, तो आप उसे इस कमज़ोरी को दूर करने के लिए खाध्य पदार्थ भी मुहैया करवाएंगे? –नहीं ना, वह तो वही खाएगी जो वर्षों से खाती आ रही है … इस की बजाए कितना अच्छा हो कि उस के खाने पीने की आदतों के बारे में पूछ कर कुछ न कुछ उन में आवश्यक सुधारों की चर्चा कर लें ताकि कुछ तो कैल्शीयम जो वह ले रही है उस के शरीर में समा सके।

ऐसे ही अंधाधुंध टैस्ट किए जाने से भला क्या हासिल होने वाला है?— कमज़ोर हड्डीयां होती हैं – 65 के ऊपर की महिलाओं की और 70 के ऊपर के पुरूषों की – यह आंकड़ें हैं अमीर मुल्कों के, हमारे यहां के थोडा बहुत अलग हो सकते हैं – लेकिन यह तो तय है कि हरेक का यह टैस्ट करने की बजाए उम्र या अन्य कारणों से चुने गये लोगों का ही यह टैस्ट किया जाए। महिलाओं में रजोनिवृत्ति (menopause- जब मासिक धर्म आना बंद हो जाता है) …के बाद हड्डीयां कमजोर हो जाती हैं, जो लोग कुछ तरह की दवाईयां जैसे कि स्टीरायड एवं पेट की एसिडिटि कम करने वाली दवाईयां लेते हैं उन की भी हड्डीयां कमज़ोर होने का अंदेशा बना रहता है ….ऐसे लोगों का यह टैस्ट होना चाहिए या फिर उन लोगों का जिन्हें देख कर लगे कि इस की हड्डीयां कमज़ोर हो सकती हैं। इस से ज़्यादा क्या लिखूं—-बहुत कुछ तो केवल एक नज़र भर से ही पता चल जाता है। वो अलग बात है कि अब अगर इस तरह की महंगी मशीनें खरीदी गई हैं तो कमाऊ पूत तो इन्हें बनना ही पड़ेगा। है कि नहीं?
लेकिन एक बात तो यह है कि जिन महिलाओं का इस तरह का टैस्ट यह बता देता है कि उन की हड्डीयां कमज़ोर हैं तो उन में फिर उपर्युक्त दवाईयां देकर समस्या का हल खोजने का प्रयत्न किया जाता है।

जैसा कि आप ऊपर दिये गये लिंक पर जाकर देख सकते हैं कि इस के लिए कोई सूईं आदि से आप के रक्त का नमूना नहीं लिया जाता — सब कुछ नॉन-ईनवेसिव ही है…कोई सूईं नहीं, कोई चीरा नहीं।

अपने दोस्त की बात सुन कर ध्यान आ रहा था लगभग 15 वर्ष पहले चली खतरनाक पीलिया के टीके (हैपेटाइटिस बी इंजैक्शन) लगाने की मुहिम – गली गली, मोहल्ले मोहल्ले…टीमें आईं – 100-100 रूपये में, 150 रूपये में टीके लगे……लेकिन उस के बाद क्या आजकल के बच्चों-युवाओं को ये टीके नहीं लगने चाहिए। पर यह अभियान है क्या ? —- बस भारत में तो एक ही आंधी चलती है बस एक बार—चाहे वह कुछ भी हो। लेकिन स्वास्थ्य कार्यक्रमों में स्थिरता (sustainability) की बहुत ज़रूरत है।

और एक बात …इस गीत को कभी कभी सुनने की भी बहुत ज़रूरत है ….यह याद रखने के लिये कि राल-रोटी में भी कितनी ताकत है …

कोल्ड-ड्रिंक्स के नाम पर मचने वाली लूट

कल रात में मैं अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की साइट पर ये गैस वाली कोल्ड-ड्रिंक्स (carbonated cold drinks) के बारे में पढ़ रहा था… इस वेबपेज का लिंक मैं नीचे दे रहा हूं ..आप देख कर दंग रह जाएंगे कि किस तरह से अमेरिका में इन कोल्ड-ड्रिंक्स के एक एक इन्ग्रिडिऐंट्स को कैसे लैंस के नीचे से गुजरना पड़ता है। इतनी बारीकी से प्रिज़रवेटिव्स एवं स्टेबीलाइज़र्स के बारे में लोगों को आगाह करवाया गया है।

लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था भारत में मुझे तो कभी दिखी ही नहीं ….याद है कुछ वर्ष पहले जब सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायरनमैंट (Centre for science and environment) ने कोल्ड-ड्रिक्स में इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की क्वालिटी पर ही सवाल खड़े कर दिये थे तो कितना बवाल मचा था ….हां, हां, हुआ था कुछ तो अखबारों में, मीडिया में खबरें छपीं थीं….लेकिन क्या हुआ? — वही कोल्ड-ड्रिंक्स धड़ल्ले से बिक रही हैं –बिक रही हैं क्योंकि लोगों को इन की लत पड़ चुकी है।

इन कोल्ड-ड्रिंक्स के बारे में चिकित्सक बिल्कुल ठीक कहते हैं कि ये केवल मीठा पानी के सिवाए कुछ भी नहीं है…. तो क्या हम लोग उस गैस की कीमत चुका रहे होते हैं!

कोल्ड-ड्रिंक्स पीना बिल्कुल नाली में पैसे फैंकने के बराबर है —कोई भी तो फायदा नहीं है इसका — बस फायदा कंपनी का तो है ही, साथ ही साथ उन सुप्रसिद्ध शख्सियतों का जो इन को बेचने के लिए पब्लिक को  मूर्ख बनाने से भी नहीं चूकते — लेकिन आप ही कहेंगे – वे कोई जबरदस्ती तो नहीं ना कर रहे, जब पब्लिक खुशी खुशी  बन रही है तो वे भला यह नेक काम कर के क्यों न करोड़ों कमा लें!

जो लिंक मैं नीचे दे रहा हूं उस पर जाकर आप यह देखिए कि अमेरिकी लोग इन कोल्डड्रिंक्स के दीवाने हैं – कुछ लिखा था कि इतने गैलन कोल्ड ड्रिंक एक औसत अमेरिकी एक साल में गटक जाता है।

कोल्ड-ड्रिंक्स पीने को मैं कभी भी प्रोत्साहित नहीं करता — लेकिन कभी कभार जब थोड़ी बहुत बदहज़मी सी हो जाए तो थोड़ी बहुत पी ही लेता हूं …इस से ज़्यादा कुछ दिन —बस, महीने में एक दो बार –बिल्कुल थोड़ी बहुत किसी के बहुत आग्रह करने पर।

जो हमारे पुराने पारंपिक पेय रहे हैं –वे अभी भी भाते हैं —-गन्ने का रस, शिकंजी, आम का पन्ना, सत्तू, छाछ  …यह सब पीना अच्छा लगता है …. याद है बचपन में हम लोग उस बंटे वाली बोतल के कितने दीवाने हुआ करते थे — दूध में डाल कर पीना कितना अच्छा लगता था।

आप सब के लिेए एक होम-वर्क है –अगली बार जब कोल्ड-ड्रिंक्स, एनर्जी ड्रिंक्स अथवा किसी ऐसे पेय को खरीदें तो इस पर दी गई न्यूट्रिशन से संबंधित जानकारी ध्यान से देखियेगा।

मेरे कुछ लेख किसी ज़माने में लिखे हुए जिन्हें पढ कर आप को ज़रूर कुछ अच्छा लगेगा….
गन्ने के रस के बारे में मेरा एक लेख
एनर्जी ड्रिंक्स की इधर पोल खोली है
फलों का रस पीते समय थोड़ा ध्यान दें
और हां, अपने लिंक लगाने के चक्कर में अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन का वह लिंक ही कहीं न भूल जाऊं ….
What you should know about Carbonated Soft drinks?

मरीज़ को पूरा हट्टा-कट्टा कर के घर भेजने की पीजीआई करेगा एक प्रशंसनीय पहल

10 जुलाई 2012 की अमर उजाला में प्रकाशित खबर

कुछ खबरें देख कर आस बंध सी जाती है ..अभी अभी जब आज की अमर उजाला अखबार उठाई तो यही हुआ। समाचार का शीर्षक ही कम रोचक न था …पी जी आई करेगा पूरा तंदरूस्त। इस के ई-पेपर से ली गई क्लिपिंग यहां लगा रहा हूं।

जैसा कि खबर में कहा गया है कि पी जी आई में भर्ती हुए मरीज अब सिर्फ एक तकलीफ़ का इलाज करवाने की बजाए पूरी तरह स्वस्थ होकर ही बाहर आएंगे। पी जी आई अपनी स्थापना के पचास साल पूरे होने पर मरीज़ों को यह बेहतर सुविधा देने जा रहा है।

हम अकसर सुनते हैं ना कि पुराने वैध बड़े ग्रेट हुआ करते थे – होते भी क्यों ना, वे एक मरीज़ को विभिन्न अंगों से तैयार हुआ एक पुतला समझने की बजाए एक पूर्ण शख्सियत समझते थे। वे उन को एक समग्र इकाई के रूप में देखते थे —केवल उन के शरीर का ही नहीं, उन की मनोस्थिति, उन की पारिवारिक परिस्थिति, समाज में उन का स्थान, उन की आध्यात्मिक प्रवृत्ति …..शायद अपने मरीज़ों के बारे में इन सब के बारे में पुराने वैध-हकीम ज़रूरत जितनी जानकारी तो रखते ही थे…तभी तो नबज़ पर हाथ रखने के कमाल के किस्से हम सुनते आये हैं।

ऊपर वाली खबर स्निप्पिंग टूल से काटी गई है —इस खबर को कैमरे से खींच कर डाला है, इस पर क्लिक करके आप इसे पढ़ पाएंगें—-ऊपर वाली खबर में यह काम नहीं हो पाया…..

और देखा जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की सेहत की परिभाषा भी तो कुछ ऐसी है — एग्जैक्टली तो मैं लिख नहीं पाऊंगा …लेकिन उस के प्राण यही हैं — सेहत का मतलब है किसी बंदे की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक सेहत और केवल बीमारी से रहित होना ही सेहत की निशानी नहीं है।

मैं भी कहां इन बातों के बारे में कभी सोचता अगर मैंने बंबई की टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसिस (TISS) में अस्पताल प्रशासन की पढ़ाई पढ़ने के दौरान मैडीकल एंड साईकैटरिक सोशल-वर्क को न पढ़ा होता। उसे पढ़ने के बाद मेरी आंखे खुल गईं।

हमारी चिकित्सा व्यवस्था की एक अहम् बुराई ही यह है कि हम ने बहुत ज़्यादा फ्रेगमैंटेशन तो कर दिया है—अर्थात् हम ने आदमी के शरीर को या यूं कह लें उस की सेहत को बहुत ही ज़्यादा हिस्सों में बांट दिया है और अब हम से वह एक साथ जुड़ नहीं पा रहे हैं। नतीजा हमारे सामने हैं —-हर अंग के लिए अलग डाक्टर, मज़ाक होता है कि दाईं आंख के लिए अलग और बाईं के लिए अलग…..लेकिन इतने विशेषज्ञ होने के जितने फायदे होने चाहिए क्या आप को अपने आसपास लोगों के चेहरों की तरफ़ देख कर ये महसूस हुए हैं। नहीं ना, यह हो भी कैसे सकता है।

मानता हूं सेहतमंद रखना केवल सेहत विभाग का ही जिम्मा ही नहीं हैं, बहुत से अन्य फैक्टर्स हैं जो किसी समाज की सेहत में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।

किसी बड़े अस्पताल में किसी मरीज़ को विशेषकर कम पढ़े लिखे को देख लें, किसी गांव से आये को देख लें….. हम कितना भी सुविधाओं का ढिंढोरा पीट लें, उस की हालत दयनीय होती है। कभी इधर भाग, कभी उधर ….एक जगह से दूसरी जगह भाग भाग कर ही बेचारा परेशान हो जाता है।

एक बीमारी के लिए अगर आप्रेशन होना है तो सर्जन के इलावा दूसरे डाक्टरों का केवल यही प्रयत्न रहता है कि इसे आप्रेशन के दौरान कोई कंप्लीकेशन न हो, सब कुछ ठीक ठाक हो जाए….. यही जांच करते हैं ना आप्रेशन से पहले …दवाईयां देकर हाई-ब्लड-प्रेशर नीचे लाया जाता है, शूगर का स्तर नीचे किया जाता है …. और क्या करें, ठीक ही तो कर रहे हैं …. लेकिन आप्रेशन होने पर जब मरीज़ घर आ जाता है ….तब कुछ दिनों बाद उसे कोई दूसरी पुरानी तकलीफ़ सताना शुरू कर देती है …बस फिर से अस्पताल के चक्कर पर चक्कर।

वैसे डाक्टर भी क्या करें, सरकारी अस्पतालों में इतनी भीड़ होती है कि वे चाहते हुए भी मरीज़ की वर्तमान बीमारी के अलावा और कोई बात उस से कर ही नहीं पाते….।

ऐसी बैकग्राउंड में पी जी आई की तरफ़ से इस खबर का दिखना एक ठंडे हवा के झोंके जैसा है …..देखते हैं इस का क्रियान्वयन कैसे किया जाता है … जो भी है, मंशा अच्छी है तो सब कुछ अच्छा ही होगा, लेकिन सब का माईंड-सैट चेंज होना ज़रूरी है —मरीज़ कहे कि मैं तो बस वही इलाज करवाऊंगा जिस की मुझे तकलीफ़ है, ऐसे तो नहीं चलेगा —कुछ भयंकर किस्म की बीमारियों के लक्षण शुरूआती दौर में होते ही नहीं है, ऐसे ही डाक्टरों एवं अन्य पैरा मैडीकल स्टॉफ को भी इस तरह की सुविधा के लिए– जिस के अंतर्गत मरीज़ को उस की सहमति से उस का एक बीमारी का सफल इलाज होने पर दूसरी अन्य तकलीफ़ों को भी दूर घर के हंसते-मुस्कुराते घर रवाना किया जायेगा.—पूरी तरह से डटे रहना होगा।

चलिए कहीं से शुरूआत तो हुई —अच्छा लगा यह खबर देख कर —इस का फॉलो-अप करते रहेंगे — वह कहावत भी कितनी सुदंर है कि तीन हज़ार मील का सफ़र भी शुरू तो पहले ही कदम से होता है!!

पोस्ट कुछ ज़्यादा ही बोझिल सी नहीं हो गई ? —इसे हल्का फुल्का करने का भी जुगाड़ अपने पास है , लीजिए क्लिक करिए ….

तंबाकू चबाने वाले गले की सूजन को न करें नज़रअंदाज़

25 वर्ष से तंबाकू चबाने वाली महिला के मुंह की तस्वीर

यह जो मुंह के अंदर की तस्वीर आप देख रहे हैं यह लगभग 35वर्ष की महिला की है। उसे दांतों में कोई विशेष तकलीफ़ तो नहीं थी, बस वही थोड़ा बहुत थंडा-गर्म कभी कभी लगता है जो सारे हिंदोस्तान को लगता है…लेकिन उस का मेरे पास आने का कारण था उस का पति।

वह बता रही थी कि जब उस का पति मेरे पास आया था तो मैं किसी तंबाकू गुटखा चबाने वाले से बात कर रहा था, इसलिए उस के पति ने उसे कहा कि जाओ तुम भी अपना मुंह दिखा कर तो आओ।

हां, तो महिला ने बताया कि वह शादी से पहले ही जब वह 10-12 वर्ष की थी तब ही से वह तंबाकू-चूना चबा कर खा रही है, लगभग पिछले 25 वर्ष से यह सिलसिला चल रहा है। वह बता रही थीं कि वह दिन में तीन-चार बार ही तंबाकू-चूने का मिश्रण चबाती है। उस ने चुनौतिया भी साथ रखी हुई थी –एक स्टील की डिब्बी जिस के एक तरफ़ तंबाकू और दूसरी तरफ़ चूना भरा रहता है।

उस का मुंह चैक करने पर पाया गया कि उस के मुंह में तंबाकू-जनित घाव हैं … और इस तस्वीर में आप देख रहे हैं कि मसूड़ों में सूजन तो है, लेकिन बड़ी अलग किस्म की सूजन लग रही है। जो भी हो, इस महिला के गाल के अंदर या मसूड़ों में कैंसर के कोई लक्षण नहीं दिख रहे — लेकिन विडंबना यही है कि क्या तंबाकू को लात मारने के लिए कैंसर के प्रकट होने का इंतज़ार किया जा रहा है?

मुझे याद आ रहा था …20-21 वर्ष पहले जब मैंने रेलवे सर्विस ज्वाइन की तो एक मसूड़ों की सूजन का मरीज आया …देखने में ही गड़बड़ सी लग रही थी …शायद फरवरी 1992 की बात है, वह आया तो था मेरे पास दांत के दर्द के लिए। उन दिनों मैं बंबई के एक अस्पताल में काम कर रहा था, हम ने उसे तुरंत टाटा अस्पताल रेफ़र किया। वहां उस का डायग्नोज़ ओरल कैंसर का हुआ —उन्होंने तुरंत आप्रेशन कर दिया और वह मुझे कईं वर्षों तक आकर मिलता रहा …फिर दस वर्ष बाद मैं वहां से आ गया और मुझे उस के बारे में आगे पता नहीं।

अच्छा तो मैं बात तो इस 35 वर्षीय महिला की कर रहा था … बता रही थीं कि यह लत ऐसी है कि छूटती नहीं है। इस केस में पहली बार एक अजीब सी बात दिखी की उस का पति ऐसी किसी चीज़ का सेवन नहीं करता….बच्चे भी इन सब चीज़ों से दूर हैं। उस ने बताया कि बच्चों को तो इस तंबाकू से इतनी घिन्न आती है कि कईं बार जब मैं उन्हें तंबाकू बनाने को (तंबाकू-चूने को हाथ में मसलने की प्रकिया) कहती हूं तो साफ़ मना कर देते हैं।

महिला के चेहरे की दाईं तरफ़ वाली सूजन

अभी मैं उस का मुंह देख ही रहा था कि मुझे उस के चेहरे के दाईं तरफ़ सूजन दिखी — बता रही थी कि कुछ महीनों से है … देख कर चिंता ही हुई …बताने लगी कि दवाई खाती हूं दब जाती है फिर दोबारा हो जाती है… सूजन अजीब सी थी –ऐसी सूजन दांत एवं मुंह की इंफैक्शन के लिये तो कम ही दिखी थी, उसे मैंने विशेषज्ञ के पास भेजा है…..वह उसे चार पांच दिन के लिए एंटीबॉयोटिक दवाईयां देगा और वापिस बुला कर फिर से देखेगा। इस महिला को मेरी शुभकामनाएं.

इस तरह की सूजन के संबंध में मैंने एक पोस्ट कुछ दिन ही पहले लिखी थी …..वह बंदा भी मेरे पास दो-तीन वर्ष पहले  कुछ इसी तरह की सूजन केसाथ ही आया था…जब दवाईयों से नहीं गई, दांतों में कुछ लफड़ा था नहीं ….ई.एन.टी विशेषज्ञ के पास भेजा गया… और उस का डायग्नोज़ यह हुआ कि उसे दाईं तरफ़ के टांसिल का कैंसर है…उस का समुचित इलाज हो गया ….आजकल वह ठीक चल रहा है, उस को भी मेरी शुभकामनाएं कि उस में उस बीमारी की पुनरावृत्ति न हो।

यह पोस्ट लिखते मैं सोच रहा हूं कि महिलाएं भी अपने देश के बहुत से हिस्सों में बीड़ी पीती हैं, तंबाकू, खैनी चबाती हैं, अपने मसूडों पर मेशरी (तंबाकू का पावडर) घिसने का चलन महाराष्ट्र में विशेष कर बंबई में काफ़ी देखा है — महिलाओं का इस तरह के व्यसन में लिप्त होना बहुत गंभीर मुद्दा है क्योंकि अकसर मां अपने बच्चों के लिये एक रोल-माडल होती है …अगर वह स्वयं ही इन चक्करों में पड़ी है तो बच्चों को कैसे रोकेगी?

और तो और अगर महिलाएं धूम्रपान करती हैं तो भी सैकेंड हैंड धुआं (Passive smoking) तो घर के बाकी सभी सदस्यों आदि के लिये नुकसानदायक तो है ही।

यह पोस्ट केवल इस बात को रेखांकित करने के लिए कि तंबाकू, गुटखा, सुपारी से संबंधित किसी भी शौक को पालना किसी के भी हित में नहीं है। कुछ वर्ष पहले की बात है गुजरात में बहुत ही महिलाएं जब मुंह के कैंसर का शिकार होने लगीं तो पता चला कि वह दांतों की सफ़ाई के लिए तंबाकू वाली पेस्ट दांतों एवं मसूड़ों पर घिसती हैं और ये काम उन का दिन में कईं बार चलता है….और नतीजा फिर कितना भयानक निकला। ऐसी पेस्टें आज भी बाज़ार में धड़ल्ले से बिक रही हैं, इसलिए इन से सावधान रहने में ही बचाव है।

सब की बात की –अपनी नानी की नहीं की —मेरी नानी जी को अपने मुंह में नसवार (creamy snuff…. made of tobacco) रखने की आदत थी …वह बताया करती थीं कि बहुत साल पहले जब उन के दांत में दर्द हुआ तो उन्होंने एक बार नसवार लगाई –बस दो चार दिन में लत ऐसी लगी कि अफ़सोस इस आदत ने उन की जान ले ली…. तंबाकू का इस तरह से इस्तेमाल करने वालों में पेशाब की थैली (मूत्राशय, urinary bladder) का कैंसर होने का रिस्क होता है …….मेरी बेचारी नानी के साथ भी यही हुआ…. उन्हें अचानक पेशाब में रक्त आने लगा, डायग्नोज़ हुआ …आप्रेशन हुआ …रेडियोथैरेपी भी हुई —लेकिन जीत कैंसर की ही हुई।

बीमारी किसी को कोई भी किसी भी वक्त हो जाए इस पर किसी बंदे का कंट्रोल पूरा तो नहीं होता लेकिन अगर मक्खी देख कर भी निगली जाए तो फिर उसे आप क्या कहेंगे!!

पोस्ट के अंत में बस इतनी सी नसीहत की घुट्टी कि तंबाकू के सभी रूपों से कोसों दूर रहें……यह जानलेवा है, तंबाकू इस्तेमाल करने वाले को यह कब और कैसे डस लेगा, क्या अंजाम होगा ….यह सब जानते हुए भी अगर मुंह में रखे गुटखे को थूकने की इच्छा न हो तो फिर डाक्टर भी क्या करें?

कच्चे दूध का मुद्दा तो पीछे छूट गया लगता है..

जब हम लोग 25 वर्ष पहले माइक्रोबॉयोलॉजी पढ़ते थे तो दूध की पैश्चूराईज़ेशन के बारे में पढ़ा—वह यह कि गाय, भैंस, बकरी ..इन से मिलने वाले दूध को पैश्चूराईज़ेशन करने के बाद ही सेवन किया जाना चाहिए।

बचपन में देखते थे कि हमारे पड़ोस में एक सरकारी प्राइमरी स्कूल था जिस में दोपहर को सैंकड़ों दूध के पाउच आ जाते थे जिन्हें वे बच्चे मिड-डे मील के तौर पर पीते थे। अब सोचता हूं तो लगता नहीं कि वह दूध पैश्चूराईज़्ड होगा। पैश्चूराईज़ेशन का मतलब है कि कच्चे दूध को एक विशेष समय तक विशेष डिग्री तापमान तक उबलने देना ताकि उस में हानिकारक जीवाणु जैसे कि ई-कोलाई, सालमोनैला, लिस्टिरिया आदि नष्ट हो जाएं और दूध पीने लायक बन जाए।

लेकिन मुझे याद है कि हमें यह भी पढ़ाया जाता था कि बिना पैश्चूराईज़ेशन के दूध लेने से एक तरह की टी बी –जिसे बोवाईन ट्यूबरक्लोसिस – Bovine Tuberculosis –भी कहते हैं… हो सकती है जिस में हमारी आंते टीबी से ग्रस्त हो सकती हैं।

आज जब सुबह यह न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ रहा था तो यही सोचा कि शायद विकसित देशों में पशुओं की टी बी पर पूरा काबू पा लिया होगा जो इस बीमारी का ज़िक्र तक ही नहीं है।

जब बिल्कुल छोटे थे तो देखते थे कि अकसर लोग गाय-भैंस के नीचे बैठ कर “डोके” लिया करते थे —यह पंजाबी का शब्द है जिस का मतलब है गाय, भैंस के थनों के सामने बैठ कर दूध की धारें सीधा मुंह में लेना…. इस तरह से दूध के पीने को बहुत पौष्टिक माना जाता था ..बस, सिर्फ़ एक भ्रांति और क्या!!

आज जब मैं फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा प्रकाशित यह रिपोर्ट देख रहा था जिस का लिंक मैं यहां दे रहा हूं तो यही सोच रहा था कि अब भारत में तो कच्चे दूध की बात ही शायद कभी सुनी नहीं। यहां पर दूध इतना ज़्यादा मिलावटी बिकने लगा है कि अब यह फोकस कहां रहा है कि दूध उबला भी हुआ है या नहीं!! FDA link –> Raw Milk And Food Safety … इस लिंक पर क्लिक करते ही आप जिस वेबपेज पर पहुंचेंगे, वहां पर जो वीडियो लगा हुआ है वह भी ज़रूर देखिए।

नकली, घटिया किस्म के पावडर से तैयार किया गया दूध धड़ल्ले से बिक रहा है — मीडिया कुछ दिन चीखता-चिल्लाता है, लेकिन वह भी क्या करे, केवल दूध पर ही तो अटका नहीं रह सकता। लेकिन इतनी बात तो अब मैं भी समझ गया हूं कि यह बाज़ार में बिकने वाले पनीर, मिठाईयां, मावा सब के सब (सब के सब की बजाए अधिकतर लिखना मुझे अपनी सेफ्टी के लिए ठीक लगता है!!) ..पावडर दूध से तैयार किये जा रहे हैं….वरना इतना दूध कैसे गर्मी के दिनों में भी इतनी आसानी से मिल जाता है।

अब तो लगता है कि दूध की क्वालिटी के बारे में बात ही न की जाए— यहां यह ही नहीं पता कि किस मिलावटी दूध का सेवन किया जा रहा है, ऐसे में पैश्चूराईज़ेशन की बात को क्या छेड़ें !!

दूध के ऊपर कुछ भी लिखना अब बड़ा फुद्दू सा काम लगता है …कारण यह कि हर तरफ़ धड़ल्ले से मिलावटी दूध, कैमीकल दूध बिक रहा है …पब्लिक इसे पी-पी कर अपनी सेहत तबाह किये जा रही है।

बस, यह लिख कर अपनी बात खत्म करता हूं कि सावधानी बरतने में ही समझदारी है। मैं अपनी बात ही कहता हूं —मैं बाज़ार की चाय बहुत ही ज़्यादा मज़बूरी में पीता हूं —साल छः महीने में एक बार …जैसे कि कोई दूध से बनी मिठाई को शिष्टचार के लिए कभी छःमहीने-साल में एक बार खा लेता हूं —इसी पूरी अवेयरनैस के साथ खाता हूं यह मिलावटी घटिया दूध से तैयार की गई है…..बर्फी-वर्फी का तो मतलब ही नहीं, शायद पांच छः वर्ष हो गये हैं।

किसी भी समारोह में जाता हूं तो दूध और दूध से बने पदार्थों को छूना भी पाप समझता हूं –जैसे कि मिल्क-शेक, दही भल्ले, रायता, पनीर वाली कोई भी सब्जी, लस्सी-छाछ, रबड़ी, आइसक्रीम……लिस्ट इतनी लंबी है कि आप यही सोच रहे होंगे कि यार तू फिर जाता ही क्यों है इन समारोहों में …..उस का जवाब है दाल-चावल खाने। अगर हो सके तो आप भी सार्वजनिक जगहों पर इन चीज़ों का त्याग कर के देखिए —अच्छा लगेगा। मुझे देख कर अब बच्चे भी शादी-ब्याहों में इन चीज़ों से दूध रहने लगे हैं।

आजकल यह बाज़ार में जगह जगह मिल्क-शेक बहुत बिकने लग गया है ….समझ नहीं आती कि लिखूं कि नहीं कि क्या आप यह सुनिश्चित करते हैं कि यह दूध पैश्चूराईज़ड है कि नहीं, लेकिन फिर लगता है कि क्या फर्क पड़ता है —जिस दूध का ही पता नहीं कि वह किस मिलावटी स्रोत से आया है ….किसी घटिसा किस्म के पावडर से बना है या और कोई कैमीकल लफड़ा है —कुछ भी तो पता नहीं… ऐसे में पैश्चूराईज़ड है या नहीं, अब किसे इन सब बातों में पड़ने की फ़ुर्सत है।

इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि दूध के बारे में बहुत ही ज़्यादा सचेत रहने की ज़रूरत है, आखिर यह हमारी सेहत का मामला है।

भांग पीने से होता है कहीं ज़्यादा नुकसान

भांग के बारे में मेरा ज्ञान बहुत सीमित है —बस, भांग का नाम आते ही मुझे याद आ जाता है वह सुपर-डुपर गीत—जय जय शिव शंकर…कांटा लगे न कंकर और दम मारो दम…मिट जाये गम। इस के साथ ही ध्यान में आ जाता है भारत का एक धार्मिक त्योहार जिस में भांग को घोट कर पीने की एक परंपरा सी बना रखी है… कुछ लोग होली के दिन भांग के पकौड़े भी खाते-खिलाते हैं —ऐसे ही एक बार किसी ने हमारे होस्टल में भी शरारत की थी – और बहुत से छात्रों की हालत इतनी खराब हो गई थी कि उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा था।

और एक ध्यान और भी आता है भांग का नाम लेने से —कुछ नशा करने वाले लोग कुछ सुनसान जगहों पर अपने आप उग आए भांग के पौधों से पत्ते उतार के उन्हें हाथों से मसल मसल कर फिर उन्हें कागज में लपेट कर एक सिगरेट-नुमा डंडी सी तैयार कर उसे पीते हैं। और तो और धार्मिक स्थानों पर कुछ तथाकथित साधू का वेश धारण किये हुये लोग भी भांग का खूब प्रयोग करते हैं।

हम तो हैं हिंदोस्तानी –हमारी बात कुछ और है …और अमीर देशों में रहने वाले गोरे लोगों की बात कुछ और ..वे साधन-सम्पन्न लोग हैं, कोई भी शौक पाल सकते हैं। लेकिन मुझे कल ही पता चला कि वहां पर भी भांग के सिगरेट पीने का जबरदस्त क्रेज़ है…. बहुत ही ज्यादा हैरानगी हुई यह जान कऱ।

ब्रिटेन के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह रिसर्च की है कि यू के में भांग पीने वाले यही समझते हैं कि यह सिगरेट के मुकाबले में बिलकुल भी नुकसान दायक नहीं है।

लेकिन सच यह है कि भांग पीना भी सिगरेट पीने की तरह बहुत ही ज्यादा नुकसान दायक है। यह इसलिये है कि इसे पीने वाले इस का कश बहुत गहरा खींचते हैं जिस की वजह से सिगरेट के मुकाबले में कहीं ज्यादा टॉर और कार्बनमोनोआक्साईड गैस वे फेफड़े के अंदर खींच लेते हैं। इसलिये फेफड़े का कैंसर, ब्रोंकाइटिस और टी बी जैसे रोग पैदा होने का डर तो बना ही रहता है।

भांग का पौधा

रिसर्च से यह भी पता चला है कि एक वर्ष तक रोज़ाना भांग का एक सिगरेट पीने से फेफड़े का कैंसर होने का जो रिस्क होता है वह उतना ही है जितना एक वर्ष तक रोज़ाना बीस सिगरेट पीने से होता है।

आज जब मैं बी बी सी न्यूज़ पर यह खबर पढ़ रहा था तो यही सोच रहा था कि आखिर क्यों लोग विदेशों में जाकर पढ़ाई करने के लिये आतुर होते हैं….. ठीक है वहां कुछ आधुनिक ज्ञान सीख लेते होंगे, लेकिन बहुत ही और चीज़ें भी तो सीख ही लेते होंगे ….अब यह भांग पीने की ही बात देखिये, मैं रिपोर्ट में यह पढ़ कर दंग रह गया कि वहां पर लगभग 40 प्रतिशत लोग इस का इस्तेमाल अपने जीवनकाल के दौरान कर चुके हैं।

अगर पर इस प्रामाणिक शोध के बारे में विस्तार से पढ़ना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं….Health Risks of Cannabis ‘underestimated’ , experts warn.. जो भी हो, मेरे लिये तो यह एक बहुत बड़ी खबर थी। मुझे लगता था कि यह केवल हिंदोस्तान की ही समस्या है …. लेकिन यहां तो हमाम में सारे …..!!

 

विक्की स्पर्म डोनर ने अवेयरनैस तो बढ़ा दी लेकिन….

दो दिन पहले विक्की डोनर देखी… अच्छी फिल्म है, सब कलाकारों ने अपने अपने किरदार से पूरा इंसाफ किया है। सब से बढ़िया बात यह लगी कि आम दर्शक के मन में जो स्पर्म डोनर के बारे में भ्रांतियां रही होंगी …सैंपल देने के बारे में, टैस्ट-ट्यूब बेबी के बारे में, या बहुत से अन्य अहम् मुद्दे उन का निवारण हंसी हंसी में ही कर दिया गया।

जब हम लोग यह सिनेमा देख रहे थे तो पिछली सीटों पर बैठे कुछ युवकों का वार्तालाप सुनाई दे रहा था, उन में से एक अपने साथियों से कह रहा था ….यार, यही काम न कर लें? ..और उस के बाद उन के ठहाके। उन युवाओं का यह हंसी-मज़ाक उस समय कान में पड़ा जिस समय फिल्म में विक्की डोनर स्पर्म-डोनेशन से मिलने वाले पैसे को अपनी ऐशपरस्ती पर लुटा रहा था।

कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह न्यूज-रिपोर्ट दिखी कि बॉलीवुड की एक दो फ़िल्में इस टापिक पर आने से स्पर्म-डोनरो का जैसे सैलाब सा आ गया है। एक और फिल्म के बारे में लिखा है ..रोड-ट्रिप जिस में युवा घूमने-फिरने पर जाने के खर्च का जुगाड़ करने के लिये स्पर्म-बैंक में जाते हैं।

मुद्दे इस स्पर्म डोनेशन से जुड़े बहुत से हैं, सब से पहले तो आप इस फिल्म को देखिए अगर पहले नहीं देखी तो भी।

टाइम्स वाली खबर में लिखा है इन फिल्मों के बाद तो लड़कों के, बुज़ुर्गों के फोन भी आने लगे हैं जो अपना वीर्य-दान करना चाहते हैं। लेकिन इन का क्राईटिरिया है कि 21-45 वर्ष के आयुवर्ग के लोग ही यह दान कर सकते हैं। और इन्होंने इस रिपोर्ट में इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च के कुछ दिशा-निर्देशों का भी उल्लेख किया है।

जिस तरह से हर शहर में ये आर्टीफिशियल कंसैप्शन के क्लीनिक खुल गये हैं, लगभग हर स्त्री रोग विशेषज्ञ अपने आप को इंफर्टिलिटि विशेषज्ञ लिखने लगी है, क्या आप को लगता है कि इतनी जबरदस्त हड़बड़ाहट में सभी दिशा निर्देश पालन किये जाते होंगे।

मुझे ऐसा इस लिये लगता है कि मैंने चार पांच दिन पहले एक न्यूज़-यार्क टाइम्स में रिपोर्ट देखी थी कि वहां पर इस तरह के डोनर स्पर्म से पैदा होने वाले बच्चों में कुछ जैनेटिक बीमारियां सामने आने लगी हैं, यह रिपोर्ट बहुत ही अच्छे ढंग से लिखी गई है …लगभग हरेक मुद्दे को छूने की कोशिश की गई है इसमें ….है तो इंगलिश में और यह रहा इस का लिंक ……In Choosing a sperm donor, a Roll of the Genetic Dice. —– a great coverage of the issues concerning donar babies.

रिपोर्ट से यह जानकर हैरानगी हुई कि अमेरिका में हर वर्ष लगभग 10 लाख बच्चे कृत्रिम इन्सैमीनेशन के द्वारा पैदा हो रहे हैं ….और बहुत बड़ा मुद्दा वहां यह बना हुआ है कि अकसर डोनर स्पर्म की जैनेटिक टैस्टिंग ढंग से होती नहीं …. इसलिए कुछ खतरनाक किस्म की बीमारीयां इस स्पर्म से पैदा होने वाले बच्चों में देखी जाने लगी हैं। बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है यह ….इतना हल्का फुल्का भी नहीं जितना विक्की डोनर के डा चड्ढा (अन्नू कपूर) ने इसे पेश करने की कोशिश है।

अगर अमेरिका जैसे देश में इस तरह के जैनेटिक टैस्टिंग के इतने बड़े मुद्दे हैं तो फिर हम कैसे यह उम्मीद कर लें कि अपने यहां सब कुछ परफैक्ट तरीके से हो रहा होगा…. जैनेटिक टैस्टिंग एक बहुत मुद्दा है जिस के बारे में जितनी जागरूकता बढ़ाई जाए कम है।

मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया वाली रिपोर्ट में यह देखा कि विदेशों से भी लोग इस काम के लिये ..भारतीय स्पर्म की खोज में … और फिर यहीं पर यह प्रोसिज़र करवाने के लिये आते हैं …..इस के बारे में आप का क्या ख्याल है? …..वे तो आते हैं सस्ते के चक्कर में लेकिन …………….क्या कहें यार, थोड़ा चुप रहने की भी आदत डाल लेनी चाहिए। कुछ तो पाठकों को भी सोचने का अवसर दिया जाना चाहिए।

गाड़ी चलाते चलाते टैक्सट मैसेज भेजने पर ही मिलता है लाईसेंस

भारत की सड़कों पर स्कूटरों, मोटरसाईकिलों, कारों, ट्रकों वालो को वाहन चलाते हुये अपने मोबाइल पर बात करते देखने की अब हमें आदत सी हो चुकी है। गुस्सा तो कईं बार बहुत आता है जब ऐसे चालक की वजह से हम लोग इन से टकराते टकराते बचते हैं, आता है कि नहीं?

और तो और मुझे सरकारी रोड़वेज़ की चलती बसों में चालकों द्वारा मोबाईल पर बात करते देख गुस्सा कम और डर ज़्यादा लगता है कि 80-90 बंदों की जान इस चालक के भरोसे है। लेकिन चुपचाप उस की बात खत्म होने की प्रतीक्षा किये जाने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं होता।

मोबाइल हाथ में पकड़ कर कोई कैसे एक हाथ से अपना वाहन चला सकता है? और अब तो निरंतर कनैक्टिविटि के चक्कर में युवा ड्राइविंग करते करते टैक्स्ट मैसेज (texting) भी लिखते दिख जाते हैं। शायद यही कारण होगा बैल्जियम में उन्होंने ड्राइविंग लाइसैंस देने से पहले एक टैस्ट लेना शुरु कर दिया है….कार का ड्राइविंग देते समय अपनी कार में बैठे बैठे टैस्ट लेने वाले के सामने अपने मोबाईल पर एक टैक्ट्स मैसेज टाइप करो …. स्पैलिंग्ज़ ठीक होने चाहिए, पंक्चूएशन भी ठीक होनी चाहिए …अगर ऐसा कोई कर पायेगा तो लाइसैंस पाने का वह ड्राईवर पात्र होगा, वरना घर जाओ।

यह टैस्ट इस तरह से होता है …गाड़ी चलानी शुरू करने से पहले ही इंस्ट्रक्टर बता देता है कि ड्राईविंग लाईसैंस के कानून में कुछ बदलाव हुये हैं…वह इस टैक्सटिंग टैस्ट के बारे में भी बताता है … यह सुन कर टेस्ट देने आये युवा की हालत थोड़ी सी तो पतली हो जाती है कि यह कैसे संभव हो सकता है, इस से कारें ठुकने लगेंगी, लोग सड़कों पर मरने लगेंगे।

लेकिन इंस्ट्रक्टर भी क्या करे, वह अपनी मजबूरी जतला देता है कि यह नियम उस ने तो बनाया नहीं, इसलिये इस का पालन तो करना ही होगा।

बहरहाल टैस्ट शुरू होता है, ड्राइवर गाड़ी चलानी शुरु करता है …लेकिन साथ में मोबाइल पर एक टैक्ट्स मैसेज भी लिखना है, अब अगर वह कुछ लिखने लगता है तो गाड़ी इधर उधर घूम जाती है, अपनी लेन में नहीं रहती, बार बार ट्राई तो करता है लेकिन नहीं हो पाता…… आखिर में हार कर हाथ खड़े कर देता है कि यह कैसा टैस्ट है, यह हो ही नहीं सकता कि ड्राइविंग करते समय मैसेजिंग भी की जा सके……. just not possible!

बस युवा को इसी बात के लिये कन्विंस करना ही तो इस टैस्ट का ध्येय होता है। ऐसा कोई टैस्ट नहीं आया …लेकिन युवा को इस तरह के खतरनाक खेल का एक ट्रेलर दिखाने के लिये यह टैस्ट करवाने का नाटक किया जाता है कि उन का मन मान ले कि दोनों संभव नहीं हैं।

चलिये अब आप इस का राज़ तो जान ही चुके हैं तो इस वीडियो को भी देख ही लीजिए ….जिसे देख कर सारा माजरा आप की समझ में आ जायेगा।

अब समस्या यह है कि स्मार्ट-फोन और टेबलेट आने की वजह से युवा निरंतर 3-G तकनीक से जुड़े रहना चाहते हैं …यहां तक कि आई-पैड चूंकि पोर्टेबल है, इसलिये इसे भी कहीं भी गाड़ी चलाते समय अपनी लैप में रखना या व्हील पर ही रखना कितना खतरनाक है, इस के लिये भी कोई टैस्ट निकालो, यार।

Source : Texting & Driving : The Impossible test

आइसक्रीम के नाम पर आखिर बिक क्या रहा है?

आइसक्रीम शॉप में सचेत (??) करता यह पोस्टर

कुछ दिन पहले की बात है ..मैं एक आईस-क्रीम की दुकान से आईस-क्रीम खरीदने गया… जैसे कि दुकानदारों की आदत सी होती है, उस ने अपने आप ही मुझे अपनी आईस-क्रीम के फायदे गिनाने शुरू कर दिये। बताने लगा कि केवल उन के द्वारा बेचे जाने वाले ब्रांड की आइसक्रीम ही असली ताज़ा दूध से बनती है और जितनी भी आईसक्रीम के नाम से बेचे जाने वाले अन्य प्रोडक्ट्स हैं, वे फ्रोज़न डेज़टर्स हैं और वे ज़्यादातर वेजिटेबल ऑयल्स/फैट्स से बनाए जाते हैं। मेरी मन में थोड़ी बहुत बात तो पड़ गई।

उस ने अपनी दुकान में एक पोस्टर भी चिपका रखा था जिस की तस्वीर आप ऊपर देख रहे हैं।

अकसर जब भी आईसक्रीम की बात चलती है तो अपना बचपन याद आ ही जाता है …जब पांच पैसे में हमें वह साईकिल पर आने वाला बर्फ की कुल्फ़ी से ही बेहद खुशियां दे जाता करता था, है कि नहीं? …और जब कभी अपना बजट 10 पैसे का होता था तो वह तीले वाली कुल्फ़ी खरीद लिया करते थे …जिसे वह रेहड़ीवाला हमें थमाते समय रबड़ी में डुबोना कभी नहीं भूला करता था। आज जब पीछे देखता हूं तो लगता है कि उस ज़माने में तीले वाली कुल्फ़ी खाना भी शायद एक टुच्चा-सा स्टेट्स सिंबल ही हुआ करता था।

 

बर्फ के गोले वाले दिन याद आये कि नहीं?

उन दिनों की ही बात है … बर्फ के गोले खाने वाले दिन। कोई सोच विचार नहीं कि बर्फ किस पानी की बनी है, उस में डलने वाले रंग परमिटेड हैं कि नहीं, शक्कर की जगह सकरीन तो इस्तेमाल नहीं की गई ….कुछ भी सोच विचार नहीं, बस बर्फ़ के गोले वाले ने बनाया गोला और हम टूट पड़ते थे उस पर वहीं ही …और वह बार बार उस पर मीठा रंग डलवाने का सिलसिला।

अरे यार, यह तो मैं किधर का किधर का निकल गया … बात चल रही थी आइसक्रीम की और फ्रोज़न-डेज़टर्स की….अब बचपन की यादें शेयर करने लगूंगा तो हो गई मेरी बात पूरी !!

अच्छा तो उस दुकानदार ने मुझे वह अपनी दुकान में लगा पोस्टर भी दिखा दिया और अपनी आइसक्रीम के ही आइसक्रीम होने के दावे को मेरे सामने पेश कर दिया। बात आई गई हो गई और मैंने अपनी बीवी-बच्चों से भी यह बात कही …उन्होंने भी इस पर छोटी मोटी टिप्पणी कर के अपने अपने आइसक्रीम-कप की तरफ़ ध्यान देना ही ज़ारी रखा।

अचानक अखबार को कैसे ध्यान आ गया इस जमे हुये तेल के बारे में लिखने का !

कल ही हिंदी के एक प्रसिद्द समाचार-पत्र के दूसरे पन्ने पर ही यह खबर दिख गई … हैरानगी हुई कि ज़्यादातर बातें उस आइसक्रीम वाले पोस्टर से ही मेल खा रही थीं। इस के सत्यता या असत्यता पर टिप्पणी किये बिना मुझे यही लगा कि यह ख़बर प्रायोजित सी लग रही है जैसे किसी कंपनी ने ही इसे लगवाया हो।

इस खबर में लिखी बातें या उस आइसक्रीम के बूथ पर लगे पोस्टरों में सच्चाई हो सकती है लेकिन सोचने की बात यह है कि जो कंपनी ऐसा दावी कर रही है कि आइसक्रीम ताज़ा दूध से बनती है ….क्या गारंटी है कि उसके प्रोड्क्ट्स ताज़ा दूध से ही बनते होंगे।

बम्बई चौपाटी पर वह दुकान जहां हमने दस साल बहुत आइसक्रीम खाई ...

यार मैं इस पत्तल वाली आइसक्रीम को कैसे भूल गया ..

बाज़ार में बिकने वाले दूध की —जिन में सुप्रसिद्ध कंपनियों के पाउच भी शामिल हैं — कितनी गुणवता है, यह सब कुछ अब देश से छिपा नहीं है, ऐसे में मुझे कभी भी यह डाइजैस्ट नहीं हुआ कि 60-70-80 रूपये में एक बड़ी सी ब्रिक में क्या बिक रहा होगा। इतने में तो ढंग का दो किलो शुध्द दूध तक नही आ पाता।

चलिए,इस की तो बात छोड़िए …उस पांच पांच दस दस रूपये में बिकनी वाली सॉफ्टी में क्या क्या डाला जाता होगा, देख कर डर लगता है। डर तो भी लगता है जब गाड़ी के दूसरे डिब्बे में कोई सफ़ेद रंग की कुल्फी दो-दो रूपये में बेचने वाला आ धमकता है ………….और लोग खूब खाते हें.

आप भी सोच रहे होंगे कि यार तू तो डरता ही रहेगा, लेकिन क्या करें, देख कर मक्खी तो नहीं निगली जाती। इतना तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये जो पांच-पांच दस-दस रूपये में सॉफ्टी बेचने वाले स्टाल जगह जगह खुल गये हैं, इन में दूध तो हो नहीं सकता, उस की जगह पर क्या क्या डाला जाता है, इस के बारे में जानना होगा। लालच की बीमारी इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि अधिकतर खाध्य पदार्थ बेचने वाले को अपने चंद सिक्कों के मुनाफ़े के आगे ग्राहक की सेहत कुछ भी नहीं लगती।

मेरे विचार में तो जितने भी प्रोडक्ट्स बाज़ार में उपलब्ध हैं उन से यह अपेक्षा करना कि वे दूध से तैयार हुये हैं, यह सरासर हिमाकत होगी…इन में दूध न होने का मेरा पक्का विश्वास है। जो दूध से तैयार होने की ज़्यादा दुहाई देते हैं वे भी ताज़ा-शुध्द दूध तो इस्तेमाल करने से रहे, पावडर वाले दूध की हर जगह भरमार है...और तो और सिंथेटिक दूध के बारे में सचेत कर कर के अब चैनलों वाले इस विषय पर चुप ही हो गये हैं …..या आईपीएल में नित्य-प्रतिदिन होने वाले लफड़ों ने, निर्मल बाबा जी के दिव्य चमत्कारों की चकाचौंध ने उन्हें भी अपने घेरे में ले लिया है।

बहरहाल, कुछ भी हो बाज़ार में बिकने वाले आइसक्रीम का स्वाद तो अब फीका पड़ गया है।

यह पोस्ट यहीं बंद करता हूं ….यह तो केवल यादों की बारात सी ही पोस्ट लग रही है … इस विषय पर विशेष सामग्री लेकर जल्द ही हाज़िर होता हूं। तब तक यादों की बारात में ही शामिल हो जाते हैं ……..