डॉक्टरों का वेतन काटे जाने का फरमान…

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आज सुबह नवभारत टाइम्स खोला तो दूसरे ही पन्ने पर इस फरमान के दर्शन हो गए।

सोच में पड़ गया मैं कि जितनी मैं हास्पीटल एडमीनिस्ट्रेशन समझ पाया, उस में मुझे तो कभी डाक्टरों की गुणवत्ता के आंकलन का इस तरह का कोई मापदंड दिखा नहीं, और पिछले तीन दशकों में इस तरह के मापदंड के बारे में सुना भी नहीं।

यहां तक कि मैडीकल ऑडिट में भी कभी यह नहीं देखा कि पढ़ाया जाता हो कि डाक्टरों द्वारा कितने मरीज़ देखे गये, यह भी कोई क्वालिटी मैनेजमेंट का इंडीकेटर हो सकते हैं…….सीधी सी बात है, कितने मरीज़ देखे हैं, कितने का इलाज हुआ है, कितना को डिस्पोज़ ऑफ किया गया है, यानि कि कुछ भी……….अगर कोई इस तरह की बात की खबर ले सकता है तो केवल मैडीकल ऑडिट…

ओह हो, मैं भी किन चक्करों में पड़ गया, आज कल तो वैसे ही कुछ डाक्टर ८०- १०० -११० मरीज़ एक दिन में देखते हैं (यह भी एक रहस्य से कम नहीं  है) , ऐसे में अगर इन लोगों ने आने वाले समय में तीन गुणा सेलरी की मांग शुरु कर दी तो … या इतना ही कहना शुरू कर दिया कि जिस की सेलरी काट रहे हो, उस के मरीज़ जिस ने देखे, उस डाक्टर की सेलरी में वो रकम भी जोड़ी जाए…

और क्या लिखूं … सरकारी आदेश है तो इस का पालन भी होगा ही। मुझे कुछ विशेष टिप्पणी सूझ नहीं रही है या मैं वैसे ही चुपचाप बैठ कर यह गीत सुनना चाह रहा हूं, आप भी सुनेंगे?

हिस्ट्रैक्टमी पर चर्चा गर्म है…

हिस्ट्रैक्टमी के बारे में तो आप सब जानते ही हैं ..महिलाओं में किया जाने वाला आप्रेशन जिस में उन का युटर्स (uterus) –आम बोलचाल की भाषा में जिसे बच्चेदानी कहते हैं—पूरी तरह या कुछ भाग निकाल दिया जाता है और कईं बार इस के साथ महिला के अन्य प्रजनन अंग जैसे कि ओवरी, सर्विक्स, एवं फैलोपियन ट्यूब्स भी निकाल दी जाती हैं।

मैंने बहुत बार इस तरह की चर्चाएं होती सुनी हैं जिस में इस बात का उल्लेख आता है कि फलां फलां महिला चिकित्सक तो किसी अस्पताल में सर्जरी में हाथ साफ़ करने आती है—कहने का मतलब यही होता है कि सिज़ेरियन आप्रेशन (डिलीवरी हेतु किया जाने वाला बड़ा आप्रेशन) और हिस्ट्रैक्टमी आदि के लिए। कोई माने या ना माने सरकारी अस्पतालों में यह सब करने की एक तरह से खुली छूट सी होती है। कोई पूछ के देखे तो इस मरीज़ में फलां फलां आप्रेशन करने की इंडिकेशन क्या थीं? …..तेरी यह मजाल कि अब तूने डाक्टरों के निर्णय को चुनौती देनी शुरू कर दी।

जो भी हो, पब्लिक भी बेवकूफ़ नहीं है, वह भी अखबार पढ़ती है, इलैक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़ी रहती है, सब समझती है लेकिन फिर भी जब कोई बीमारी आ घेरती है तो कमबख्त उस की कहां चलती है। ना कुछ समझ, ना कुछ निर्णय लेने की ताकत, ना ही ऐसा सामाजिक वातावरण, विशेषकर महिलाओं के मामले में तो स्थिति और भी चिंताजनक है।

महिलाओं में कुछ आप्रेशन होने हैं तो इस का निर्णय ‘दूसरे’ करेंगे, अगर कुछ नहीं करवाने हैं तो भी वह स्वयं नहीं लेती यह निर्णय, यहां तक किसी महिला तकलीफ़ के लिए डाक्टर के परामर्श लेना है कि नहीं, यह फैसला भी उस के हाथ में नहीं।

इन सब बातों का ध्यान मुझे दो चार दिन पहले तब भी आया जब मैंने एक खबर देखी कि नैशनल फैमली हैल्थ सर्वे में हिस्ट्रैक्टमी से संबंधित डैटा इक्ट्ठा करने की मांग की जा रही है। पाठक स्वयं इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी विकट होगी कि सेहत से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ताओं को इस तरह की मांग उठानी पड़ी।

हैल्थ एक्टिविस्टों की मांग इसलिए है कि एक बार आंकड़े पता तो लगें ताकि इस सूचना को इस आप्रेशन के लिए तैयार किए जाने वाले दिशा-निर्देशों (guidelines) के लिए इस्तेमाल किया जा सके।

“The demand comes following concern over rising cases of hysterectomies reported from across the country, particularly among younger women, and by some unscrupulous doctors for monetary gains”

अधिकतर फैमली प्लानिंग आप्रेशन तो होते हैं सरकारी संस्थाओं में लेकिन 89प्रतिशत के लगभग हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन प्राईव्हेट अस्पतालों में होते हैं… इस का मतलब तो यही हुआ कि सरकारी सेहत तंत्र केवल राष्ट्रीय सेहत कार्यक्रमों तक ही सीमित है और अन्य सेहत से संबंधित मुद्दे में इस की रूचि नहीं है……………यह मैं नहीं कह रहा हूं, पेपर में ऐसा साफ़ लिखा है..

Majority of tubectomies are performed in public health system, where as 89 per cent of hysterectomies were conducted in private.  This indicates that public health system is meant only for national programme and less interested in other health programme. This also raises questions whether hysterectomies are justified and whether the higher percentage of hysterectomies in the private sector reflect economic and commercial interest of some groups.”

आंध्रप्रदेश में एक स्टडी की गई थी जिस के अनुसार जिन महिलाओं का हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन किया गया उन में से 31.2 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं जिन की उम्र 30 साल से कम थी, 52 प्रतिशत महिलाएं 30-39 वर्ष की ब्रेकेट में थीं, जब कि 83प्रतिशत महिलाओं में यह आप्रेशन रजोनिवृति से पहले (pre-menopausal) ..उन की चालीस वर्ष की अवस्था से पहले किया जा चुका था।

यह खबर जिस दिन देखी, उस के अगले ही दिन –20 अगस्त 2013 की अखबार में यह खबर दिख गई कि अब हिस्ट्रेक्टमी आप्रेशन से संबंधित जानकारी को नेशनल फैमली हैल्थ सर्वे में शामलि कर लिया गया है. अच्छा है, इस से संबंधित आंकड़े मिलेंगे तो इस से संबंधित गाईड-लाइन तैयार करने में मदद मिलेगी। इस रिपोर्ट में यह भी लिखा है..

“ It was pointed out that unscrupulous doctors were performing hysterectomies on pre-menopausal and even women younger than 30 years for monetary gains”.

महिलाओं के प्रजनन अंगों से जुड़ी समस्याओं का केवल बच्चेदानी निकाल देना ही समाधान नहीं है, इस के लिए विभिन्न मैडीकल उपचार भी उपलब्ध हैं, और हैल्थ ग्रुप्स द्वारा यह मांग भी अब आने लगी है कि इस तरह के आप्रेशन का मशविरा महिलाओं को तभी दिया जाए जब इलाज के बाकी सभी विकल्प कामयाब नहीं हो सके।

औरतें की सेहत के बारे में सोचे तो भी यह एक छोटा मोटा फैसला नहीं है, कम उम्र की महिलाओं में बिना ज़रूरत के केवल कमर्शियल इंटरेस्ट के लिए हिस्ट्रैक्टमी आप्रेशन करने से उन महिलाओं में अन्य शारीरिक बीमारियां जैसे की दिल से संबंधित रोग आदि होने का रिस्क बढ़ जाता है।

लिखते लिखते दो किताबों का ध्यान आ गया …
Whose health is it anyway?

Taking health in your hands

एक्टिविस्ट कर रहे हैं अपना काम लेकिन क्या ही अच्छा हो कि देश में महिलाओं की साक्षरता दर भी खूब बढ़े – साक्षरता रियल वाली …जो नरेगा के लिए अपना नाम लिखने तक ही सीमित न हो, ताकि महिलाओं अपने फैसले स्वयं लेने में सक्षम हो पाएं और प्रश्न पूछने की ज़ुर्रत तो कर सकें…. आमीन!!

Source ..

Demand to include hysterectomies in National Family Health Survey

Hysterectomies to be included in health survey

याददाश्त ऐसे बढ़ने लगी तो हो गया…

आज सुबह जब नवभारत टाइम्स पेपर देखा तो उस में किंग जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी के डाक्टरों द्वारा किया गया एक शोध पढ़ने को मिला. पढ़ कर अच्छा लगा कि किस तरह से ये चिकित्सा संस्थान जनमानस में व्याप्त विभिन्न भ्रांतियों का भंडा-फोड़ करने में लगे हैं……

ऐसा है ना जब बिना रिसर्च किए कोई इस तरह की दवाईयों के बारे में लिखेगा, तो उस पर ही उंगलियां उठनी शुरू हो जाती हैं लेकिन केजीएमयू जैसी संस्था में अगर इस तरह की रिसर्च हुई और उस का नतीजा यही निकाल की इस तरह की दवाईयां सब बकवास हैं, कुछ होता वोता नहीं इन से…….अगर इस तरह की स्टडीज़ को हम लोग जनमानस तक पहुंचा दें तो बात बनती दिखती है।

आशीष तिवारी की यह रिपोर्ट देख कर अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि बड़ी सरल सटीक भाषा में इन्होंने रिपोर्ट को लिखा है।

वैसे मुझे इस खबर को देखते ही ध्यान आया कि मैंने भी इस विषय पर एक लेख लगभग एक-डेढ़ वर्ष पहले लिखा तो था….सेहतनामा को खंगाला तो दिख ही गया, इसका लिंक यहां चसपा कर रहा हूं। देखिएगा, इस लिंक पर क्लिक करिए…………….. अच्छे ग्रेड पाने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाईयां

और अगर इतना सब कुछ पढ़ने पर भी बात बनती न दिखे तो हाथ कंगन को आरसी क्या, गूगल कर लें…  लिखिए .. memory plus

मैं यह सोच रहा हूं कि इस तरह की खबरें, इस तरह के लेख हम लोगों को अपनी ओपीडी में डिस्पले कर देने चाहिए…अगर कुछ लोग भी इन्हें पढ़ कर इन बेकार के टोटकों से बच पाएं तो हो गई अपनी मेहनत सफल।

ध्यान तो यह भी आया कि यार अगर याददाश्त इस तरह से बढ़ती तो फिर ये भी देश के चुनिंदा लोगों की ही बढ़ पाती —वही लोग इन चीज़ों का स्टॉक भी कर लेते और पानी की जगह शायद इन्हें ही पी लेते. लेकिन दोस्त, ऐसे नहीं होता………………….थैंक गॉड सभी अत्यावश्यक वस्तुएं प्रकृति ने अपने सीधे कंट्रोल में ही रखी हुई हैं………….

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कहीं आप के पेस्ट मंजन में भी तंबाकू तो नहीं….

gul1देश के कुछ हिस्सों में लोग तंबाकू को जला कर दांतों एवं मसूड़ों पर घिसते हैं …जिसे मिशरी कहते हैं.

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पता नहीं यह दुल्हन कहां से आ गई इस पाउच पर…

चलिए, इन लोगों को पता तो है कि ये तंबाकू घिस रहे हैं । कुछ दंत मंजन भी तंबाकू से ही तैयार होते हैं यह भी लोग जानते हैं जैसे कि गुल मंजन आदि। लेकिन लोग फिर भी करते हैं। कुछ मंजन इस तरह के हैं जो लोगों में काफ़ी पापुलर हैं और उन में भी तंबाकू की मात्रा मौजूद रहती है। अब ऐसे मंजनों का कोई क्या करे, चिंता का विषय यह भी है कि छोटे छोटे पांच-छः वर्ष के बच्चे भी इन्हें इस्तेमाल करते हैं और जल्द ही इस के आदि — एडिक्शन हो जाती है।

दो दिन पहले मैं ऐसे ही इधर एक बाज़ार में खड़ा था, सामने एक पनवाड़ी की दुकान थी, वहां पर बहुत ही रंग बिरंगे गुटखे के पैकेट टंगे दिखे। मैंने सुना था कुछ दिन पहले कि अब लखनऊ में नेपाल में तैयार गुटखा बिकने लगा है। मैंने उस पनवाड़ी से पूछा तो उस ने बताया कि नहीं, ऐसा कुछ भी तो नहीं। अचानक देखा कि गुल का पाउच टंगा है, मैंने एक खरीद लिया।

यह पैकेट एक रूपये में बिक रहा है। दुकानदार इस की दांत चमकाने की क्षमता और दांत एक दम फिट रखने की क्षमता पर प्रवचन करने लगा कि आप भी इसे एक बार अजमा कर के तो देखिए।

यह गुल मंजन लोगों में बड़ा पापुलर है। लेकिन मुझे इतना पता था कि यह बड़े से डिब्बे में ही आता है, मेरे कहने पर मेरे मरीज़ अकसर इसे मुझे कईं बार दिखाने के लिए घर से लाये थे। वह तो चिंता की बात है ही–शायद उस से और भी चिंता की बात यह है कि यह पाउच में भी दिखने लगा है।

gul3जब तक मैं अपनी बात रखनी शुरू नहीं करता मेरे मरीज़ तंबाकू वाले मंजनों के तारीफ़ों के कसीदे पढ़ते नहीं थकते…पहले दांतों में दर्द था, पहले मसूड़ों को पायरिया था, पहले दुर्गध आती थी …लेकिन जब से यह तंबाकू वाले मंजन का इ्स्तेमाल शुरू किया है सब ठीक लगने लगा है। लेकिन नहीं, उन को सोचना गलत है, तंबाकू वाले मंजन केवल तबाही ला सकते हैं और वे यह काम में सफल हो भी रहे हैं।

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इस तस्वीर को अच्छे से देखने के लिए इस पर आप को क्लिक करना होगा.
और इस आर्टीकल को पूरा देखने के लिए यहां पर क्लिक करिए

मेरे एक मित्र जो डैंटल कालेज में प्रोफैसर हैं –कल वह भी इस तरह के मंजनों के बारे में बहुत चिंतित नज़र आए। एक सब से खौफ़नाक बात जो देखने में आ रही है कि छोटे छोटे बच्चे जब इन का इस्तेमाल करने लगे हैं तो वे सहज ही तंबाकू के व्यसनी बन जाते हैं।

जब मैंने इस तंबाकू वाले गुल को खोला तो इतनी गंदी बास आई कि मुझे उन लोगों के चेहरे याद आ गये जो मुझे यह कह कर चले गये कि इस से मुंह की दुर्गंध आनी बंद हो गई। काश कभी वे फिर से दिखें …..

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इस टैक्सट को अच्छे से पढने के लिए आप को इस पर क्लिक करना होगा….
कहीं आप के पेस्ट मंजन में भी तो तंबाकू नहीं….(इसी लेख का एक अंश)

अगर आप इन तंबाकू वाले मंजनों आदि के बारे में कुछ विस्तार से पढ़ना चाहें कि वे किस तरह से हमें खोखला किए जा रहे हैं तो ऊपर या नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक कर के देखिएगा।

मुझे सब से खौफनाक बात यह लगती है कि कुछ मंजन ऐसे हैं जिन्हें लोग इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है उन में तंबाकू मिला हुआ है. मैं इसी स्टडी की चंद पंक्तियों का एक स्क्रीन-शॉट चिपका रहा हूं, इसे ज़रूर देखें………ताकि अगर आप भी इस तरह का कोई ब्रेंडेड मंजन वंजन घिस रहे हैं तो आप का भी मोहभंग हो जाए।

वैसे लिंक यहां भी लगा दिया है ….

Influence of smokeless tobacco on periodontal health 

 

महिलाओं के सिर के बोझे का भी किसी ने सोचा तो!

कितनी बातें ऐसी हैं जिन के बारे में कभी हम लोग संजीदा होते ही नहीं है, हम सब देखते हैं कि देश में लाखों-करोड़ों महिलाएं सिर पर पानी के मटके उठाए हमें दिख जाती हैं लेिकन बस लिप-सिंपथी के अलावा हम ने कभी कुछ नहीं किया।

फिल्मों में ज़रूर इन मटकी वाली स्त्रीयों को दिखाया जाता है …बस ग्लैमराईज़ करने के लिए –एक तो पानी की भरी भटकी उन के सिर के ऊपर टिकी हुई है और ऊपर से वह शोहदा ,फुकरा उन के साथ छेड़खानी करने में मशगूल है, बस इसी तरह के स्टीरियोटाइप ही हमारे मन में बैठे हुए हैं, है कि नहीं?

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इस से संबंधित द हिंदु का आर्टीकल पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए

मुझे आज के द हिंदु में एक खबर देख कर बहुत अच्छा लगा कि किस तरह से बारमेड़ के पानी की कमी वाले इलाकों में कंपनी महिलाओं की मदद के लिए आगे आई है।  वहां पर कंपनी में पानी को ढोने के लिए बैकपैक इन महिलाओं में वितरित किए हैं जिन से वहां की महिलाओं को बड़ा आराम मिलेगा क्योंिक इन महिलाओं को औसतन ३-४ किलोमीटर की दूरी पर जाकर पानी सिर पर मटके टिका कर लाना पड़ता है।

मैंने यह रिपोर्ट देखी तो मुझे अच्छा लगा, द हिंदु इस तरह के इश्यू जिन के बारे में दूसरा कोई बात नहीं करता, उठाता रहता है…इसलिए इस पेपर की क्रेडिबिलिटी के बारे में आप पढ़ते सुनते ही रहते हैं।

कुछ समय पहले मैं रोहतक से पानीपत अपनी गाड़ी में जा रहा था तो देखता हूं कि जैसा मैं २५ वर्ष पहले देखा करता था वही हालात क्या अभी भी हैं, बिल्कुल रोहतक के पास ही लगते गांवों में महिलाएं वहीं सिर पर पानी के घड़े टिकाए चली जा रही थीं………मीडिया में आता तो बहुत है कि दूर दूर से पीने वाला पानी लाना क्यों महिलाओं की ही जिम्मेदारी बन कर रह गया है।

ज़ाहिर सी बात है कि कि लंबी दूरी से इतना बोझ उठा कर लाने से महिलाओं की पीठ एवं स्पाईन में तकलीफ़े उत्पन्न होनी तय सी होती हैं लेकिन किसी ने आगे आ कर किया क्या, यह हम सब जानते हैं।

लेकिन इस तरह के बैकपैक देख कर ही इतना अच्छा लगता है कि किस तरह से यह उन महिलाओं को राहत देता होगा।

मुझे अभी ध्यान आ रहा है कि हम बातें बड़ी बड़ी हांकते हैं, है कि नहीं, हम ने इतने लाखों आईआईटी इंजीनियर पैदा कर दिए, वो अलग बात है कि कितने देश में रहे, यह विचारणीय मुद्दा है, लेकिन क्या कभी इन शीर्ष इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट अथवा डिजाइन संस्थाओं का ध्यान देश में लोगों के लिए इस तरह के काम को कुछ हल्का करने की तरफ़ ध्यान नहीं गया।

देखिए, अब इस कंपनी ने महिलाओं में इतने सार बैकपैक बांटे हैं, उन की ज़िंदगी थोड़ी सी आसान तो की है, लेकिन अगर इस पर भी कोई अडंगा अटकाए की अब बाहर की कंपनियां ये सब देश में बेचेंगी, यह बड़ी बेहूदा सी बात लगेगी। करने दो अगर कोई इस तरह का काम कर रहा है और अगर देश की किसी कंपनी में दम है तो उस से कम लागत में वैसी ही क्वालिटी ( यह बहुत ज़रूरी है) के बैकपैक तैयार करे वरना अपने मुंह पर पट्टी बांध ले, कंपनी अगर बाहर की है या अंदर की, क्या फ़र्क पड़ता है, किसी ने देश की महिलाओं का सिर का बोझा हल्का करने का सोचा तो।

जाते जाते डोर फिल्म का वह गीत ध्यान में आ गया —यह हौंसला कैसे झुके……..लिंक एम्बैड करने की कोशिश तो की लेकिन नहीं हो पाया, इसलिए अगर उसे सुनने चाहते हैं तो यहां क्लिक करिए

कौन सा टुथपेस्ट बढ़िया है?

मैं पिछले तीस वर्षो से डैंटिस्ट्री कर रहा हूं और देख रहा हूं कि अकसर इस तरह के प्रश्न लोग कम करने लगे हैं, शुक्र है प्रिंट एवं इलैक्ट्रोनिक मीडिया का कि “सुंदर सुंदर ” (आप सब समझते हैं…) विज्ञापन पब्लिक को सब कुछ समझाने लगे हैं और उन से वे अच्छे से समझ भी रहे हैं …और उन के द्वारा रिक्मैंडेड पेस्टें धड़ाधड़ खरीद भी रहे हैं। वो अलग बात है कि विज्ञापनों में दिखाई जाने वाली पेस्टें उन के लिए उपर्युक्त हैं कि नहीं, क्या फ़र्क पड़ता है। जो भी हो, इस सब से सिरदर्दी हम जैसों की बढ़ जाती है, पहले उन की वो दवाई वाली पेस्टें बंद करवाओ, नहीं ..पहले समझाओ कि ये पेस्टें आप का इलाज न करेंगी, आप के पायरिया को ठीक न करेंगी, फिर कहीं जाकर कुछ लोग इन्हें छोड़ने पर राज़ी हों कि न हों, फिर हम अपना इलाज शुरू करें………….कोई बात नहीं, यह सब तो रोज़ाना ही करना पड़ता है।

कुछ महीनों या पिछले एक दो एक वर्ष से जिस तरह से दांतों में ठंडा गर्म लगने वाली पेस्टों को प्रमोट किया जा रहा था, जिस तरह से मसूड़ों की बीमारियों को इन पेस्टों के इस्तेमाल से ठीक किए जाने से दावे होते दिखने लगे हैं, यह सब देख कर डर सा लगता है, पहले ही से लोग डैंटिस्ट के पास जाने में कतराते रहते हैं, ऊपर से उन्हें हम शार्ट-कट तरीके बता बता कर उन की मुंह की तकलीफ़ों को बढ़ावा दिए जा रहे हैं।

हां, तो मुद्दे पर आता हूं. कल सुबह इंगलिश की अखबार रात को सोते समय देखने का मौका मिला … कल तरह तरह की सेलों पर धक्के खाने का दिन था, संडे था ना, इसीलिए। नहीं कुछ खास नहीं लाए, किसी दिन पहन कर तस्वीर खिंचवा कर इधर ही डाल दूंगा।

हां तो मैं एक विज्ञापन देख कर दंग रह गया …ऐसा क्या था, आप भी देख लीजिए, यहां चिपकाए दे रहा हूं. एक टुथपेस्ट सरेआम अपने को दूसरी पेस्ट से श्रेष्ठ कह रही थी, ऐसा शायद मैंने पहले कभी नहीं देखा, देश में टुथपेस्टों के जो कुछेक ब्रांड हैं, उन में यह सब चलता ही रहता है लेकिन इतना खुला खुला …..यह पहली बार देखा …इंगलिश अखबार के पहले पन्ने पर। मैं यही सोचते सोचते सो गया कि अच्छा है कि यह इंगलिश के अखबार में छपा है …अगर कहीं हिदी की अखबार में छपता तो हिंदी पाठकों तक इन अखबारों की व्याप्त पहुंच के चलते …………..क्या होता? आप सब कुछ जानते हैं!!

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सुबह उठते ही जैसे ही हिंदी का अखबार उठाया तो सब से पहले अगले पन्ने पर अटैक शब्द पर ही निगाह गई…………..सोचा बार्डर पर टेंशन तो चल ही रही थी कहीं कोई अटैक-वैक तो नहीं हो गया, नहीं नहीं, ऐसा कुछ भी तो ना था, बस एक पेस्ट का दूसरे पेस्ट पर अटैक था कि उन की पेस्ट दूसरी पेस्ट से अच्छी है, लीजिए आप भी इस अखबार का पहला पन्ना देखने से महरूम न रहें।

और नीचे देखिए जो विज्ञापन था पहले पन्ने पर।

DSC08866मैं सोच में पढ़ गया कि यार इस तरह की टैक्नीकल बातें तो हम जैसे डैंटल प्रोफैशनल लोगों के लिए हैं, इसे आम पाठक को क्या लेना देना, उसे तो जिस तरफ़ वाला लौंडा गोरा चिकना और प्रसन्नचित दिखेगा, वह समझेगा कि उस का नट्टू भी इस पेस्ट के इस्तेमाल से वैसा ही गोरा, 12 aug 001चिट्टा , सफेद दांतों वाला दिखने लगेगा, दूसरे के तो दांत ही नहीं दिख रहे जैसे कि गायब ही हो गये हों।

हमें अभी भी कुछ मरीज़ को पूछते ही हैं कि कौन सी पेस्ट को यूज़ करें…और अधिकतर केसों में तो हमें ही पहले उन से पूछना पड़ता है कि क्या इस्तेमाल कर रहे हो दांतों की सफ़ाई के लिए —और रोजाना पांच सात मरीज़ बता ही देते हैं कि वे लंबे समय से तंबाकू वाले किसी मंजन को घिस रहे हैं, कोई किसी अन्य खुरदर्रेदार मंजन या पेस्ट का नाम लेता है …और उस से पहले ही उस के दांतों के हालात ही दास्तां ब्यां कर देते हैं।

बहुत बार मैं किसी मरीज़ के कहने पर अगर उसे दो-तीन नामों के सुझाव देता हूं तो वह केवल इसलिए कि ये लोग किसी तरह से बाज़ार से किसी थर्ड क्लास पेस्ट लेकर इस्तेमाल करना न शुरू कर दें। फायदा तो दूर, इस तरह की चालू, लोकल पेस्टें इन के दांतों को बुरी तरह से घिस देती हैं। बस, इतना कहना चाहूंगा कि कोई भी अच्छे ब्रांड की पेस्ट ले लें जिस में फ्लोराइड मिला हो …Fluoridated toothpaste. यह हमारे दांतों में सड़न की रोकथाम करती हैं।

हां, लिखते लिखते ध्यान आया कि एक बार कुछ वर्ष पहले मूड में आकर मैंने टुथपेस्टों के बारे में अपना दिल खोला था, क्या लिखा था अब याद कहां!! एक समस्या है भई मेरे साथ भी जैसे हलवाई अपनी मिठाई खाते हुए डरता है …लोग तो कहते हैं कि खाता ही नहीं वह अपना मिठाई, इसी तरह से मैं भी अपने लेखों को पढ़ते हुए डरता हूं………….पता नहीं उस समय क्या लिख दिया होगा। लेकिन एक बात है कि जब मुझे मेरे किसी लेख के बारे में कोई फीड-बैक मिलती है तो मैं उसे फिर से ज़रूर पढ़ कर आवश्यक अध्यतन (update) ज़रूर कर देता हूं।

तो फिर ऐसा करता हूं कि कुछ वर्ष लिखे टुथपेस्ट पर लिखे अपने लेखों के लिंक यहां चसपा किये दे रहा हूं, इन्हें भी ज़रूर देखिएगा………………..लेकिन मैं इमानदारी से कहे दे रहा हूं कि ये लेख मैंने पांच छः वर्ष पहले लिखे थे, इन को अगर अपडेट करने की ज़रूरत हो तो मुझे ज़रूर लिखियेगा…. (this is for my dental colleagues)

टुथपेस्ट का कोरा सच ..भाग एक

टुथपेस्ट का कोरा सच …भाग दो

हम तो पिछले तीस वर्षों से इन्हीं पेस्टों-पावडरों में खप रहे हैं लेकिन ये लोग इश्क के मंजन को घिसाने की बात कर रहे हैं, आप भी सुनिए तो ………..

मच्छर मारने वाला रैकेट ….

मच्छर मारने वाला रैकेट ….सुन कर आप को भी कहीं रैकट तो नहीं लगा. लेकिन मुझे एक बात गलतफहमी हो गई थी परसों शाम को जब हम लोग बिग-बाज़ार गये हुए थे। एक तो ऐसी जगहों पर जाकर यह लगता है कि अब देश के मेले खेत, खलिहानों, शहर के खुले मैदानों की जगह इस तरह के बडे़ बाज़ारों में लगने लगे हैं … लोगों के द्वारा ठूंस ठूंस कर कोल्ड-ड्रिंक्स, साबुन, शैंपो, नूडल …. शापिंग बास्केट में भरे देख कर बहुत ही अलग तरह के विचार आते हैं, उन्हें मैं यहां लिखना नहीं चाहता।

हां, तो जब हम लोग भी उस बाज़ार में बेरमुडा ढूंढते ढूंढते इधर उधर धक्के खा रहे थे तो एक जगह मेरे बेटे ने एक रैकेट की तरह इशारा किया…मैंने कहा यार, इतने सारे पहले ही तो हैं तेरे पास, खेलता तू है नहीं, लेकिन उस ने कहा कि पापा यह रैकेट आम रैकेट नहीं है। उस ने मुझे बताया कि यह मच्छर मारने वाला रैकेट है जो बैटरी से चलता है और जिस से मच्छर मर जाते हैं।

मैंने उस रैकेट के बारे में ज़्यादा जानकारी पाने का इच्छुक नहीं था, इस के कुछ मेरे व्यक्तिगत कारण है। लेकिन इतना कह दूं कि इतने भी व्यक्तिगत नहीं कि कछुआ छाप से, गुड-नाइट से तो इन प्राणियों की हत्या होने देता हूं लेकिन रैकेट को देखते ही पता नहीं इन मच्छरों के प्रति मेरा प्यार कैसे उमड़ आया….वैसे उस के ऊपर इस मच्छरमार रैकेट का दाम 200 रूपये के करीब लिखा हुआ था।

लेकिन मुझे इतना विचार तो आया कि घर में तो इस तरह के रैकेट का इ्स्तेमाल करने का यह मतलब है कि किसी एक बंदे की ड्यूटी लगे कि वह इसे मच्छरों के पीछे पीछे घुमाता रहे, ऐसा करना कितना प्रैक्टीकल है, आप भी जानते हैं।

मुझे कल की नवभारत टाइम्स में इस बात का जवाब मिल गया कि इस तरह के रैकेट इस्तेमाल करने के लिए सब से उपयुक्त जगह कौन सी है जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं किसी भी समारोह के शुरू होने से पहले मंच पर सभी मच्छरों की सफाई होनी ज़रूरी है, क्या पता कौन सा मच्छर अपने दामन में डेंगू लिए हो।

12 aug 003

मेरे बेटे ने मेरे इस लेख का ड्राफ्ट पढ़ा तो मुझे कहने लगा कि डैड, आपने जनता को मच्छरों को बचाने की तो कोई बात की नहीं, मैं उसे बस इतना कह कर दिलासा दे दिया कि यार, उन का क्या है, उन्हें तो मच्छरों की लत लग गई है…वह अकसर वह आज के दौर का गीत सुनता दिखता है ..मुझे तो तेरी लत लग गई …शायद मेरी बात का मतलब समझ गया।

वैसे मैंने उस को तो नहीं सुनाई, आप को एक किस्सा सुना रहा हूं यह बचने बचाने वाली बातों से ध्य़ान में आ गया…. एक बार एक गांव में बाढ़ आ गई, एक बंदा अपनी बीवी को अच्छे से पकड़-जकड़-बाहुपाश किए हुए गहरे पानी से बाहर निकलने के लिए चला जा रहा था, पीछे पीछे उस की बुज़ुर्ग मां लड़खड़ाती हुई चली आ रही थी, गिरती संभलती ..अपने आप को संभाल ही न पा रही थी। गांव का एक समझदार बंदा यह मंजर देख रहा था, वह तुरंत उस बंदे के कान में कुछ कह कर चला आया। किसी ने पूछा कि क्या कह कर आए हो उसे। उसने खुलासा किया कि मैंने उसे समझा दिया है कि देख, नट्टू, अपनी बूढ़ी, बुज़ुर्ग मां को संभाल कर उठा ले, उसे बचा ले, तेरी जवान सुंदर बीवी को तो कोई भी बचा लेगा।

 

ज्यों ज्यों दवा की मर्ज़ बढ़ता गया ..

Unknownइस पोस्ट का शीर्षक आप को भी अजीब सा लगा होगा, मुझे भी लग रहा है लेकिन क्या करूं पोस्ट का विषय ही कुछ इस तरह का है।

अच्छा तो आज मैंने नवभारत टाइम्स में न्यूज़ देखी — डायबिटीज़ की दवाओं पर लिखी होगी वार्निंग  — शायद मैं भी अन्य खबरों की तरह इसे भी पढ़ कर अगले पन्ने पर सरक जाता लेिकन इस के पहले ही पैराग्राफ में मेरा ध्यान अटक कर रह गया — बहुत ही अजीब सा लगा इस खबर को देख कर……

‘इस दवाई को खाने से आप और बीमार हो सकते हैं’ …ऐसी चेतावनी लिखी हुई दवाईयां जल्द मार्केट में आ सकती हैं। यानी इन का सेवन आप अपनी रिस्क पर करेंगे। इसके लिए दवाई कंपनी या डॉक्टर नहीं जिम्मेदार होगा। सैंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन (सी डी एस) ने यह फैसला कुछ दिन पहेल बैन की गई डायबिटीज की दवाईयों पर किया है

(इसी खबर से)

images1हां, अब काम की बात पर आते हैं –खबर तो आप ऊपर लिखे दिए गये लिंक पर जा कर देख ही लेंगे लेकिन इस के बारे में सोचने वाली बातें बहुत सी हैं। चलिए सोचते हैं –पहले तो यह कि जब डायबिटिज़ की दवाईयों को बैन करने की बात मीडिया के सामने आई थी तो उस के कुछ ही दिनों बाद एक और लफड़ा सामने आया कि इस तरह की दवाईयों को बैन करवाने के पीछे मद्रास के कुछ डाक्टरों का हाथ है क्योंकि वे कुछ अन्य दवाईयों पर रिसर्च कर रहे हैं जिन्हें कोई दूसरी कंपनी स्पांसर कर रही है।

बहरहाल, हम लोग डाक्टर है, हम ही चक्कर खा गये कि यार यह हो क्या रहा है, आज दवाई बैन हो गई और कुछ दिनों बाद दूसरी बातें सुनने को मिल रही हैं। मैं आमजन की परिस्थिति की हालत की कल्पना करता हूं तो कांप जाता हूं। क्या करे, बेचारा क्या ना करे, अपनी मरजी से दवाई तो लेने से रहा।

अभी यह मुद्दा गर्माया ही हुआ था कि आज यह खबर दिख गई — मैं किस तरह से ब्यां करूं कि मुझे इस तरह की चेतावनी पर कितनी आपत्ति है — आम जन बेचारा अपने आटे दाल में ही इतना पिसा हुआ है कि वह क्या फैसला करेगा, क्या वह इन चेतावनियों को समझ पाएगा।  कितना हास्यास्पद सा लगता है कि दवाई बाज़ार में िबक रही है लेकिन  उस बेचारे से हम यह उपेक्षा करें कि वह इस तरह की चेतावनी पढ़ कर दवाई लेने या ना लेने का निर्णय ले। नहीं साहब, यह नहीं हो सकता, हम कहीं उसकी इग्नोरैंस को एक्सप्लायट तो नहीं कर रहे।

चिंता का विषय यही है कि करोड़ों रूपये की दवाईयां मार्कीट में पड़ी हुई हैं।

images2क्या लिखें यार इस मुद्दे पर —सब कुछ साफ़ दिख रहा है, बस आमजन के सेहतमंद रहने की दुआ ही कर सकते हैं …..आप लोग जो यह लेख पढ़ रहे हो, दिल पर हाथ रख कर के बताओ दोस्तो कि कितनी बार लाइफ में आपने दवाई खरीदते समय निर्णय स्वयं लिया था — शायद कभी भी नहीं, जो डाक्टर कह देता है आप वही खरीद लेते हो, है कि नहीं।
मैंने जब से यह खबर देखी तो यही सोच रहा हूं कि क्या इस तरह की चेतावनी से ही सब कुछ ठीक हो जाएगा— तंबाकू, गुटखों पर कितने बड़े बड़े अक्षरों में लिखा रहता है कि इस से कैंसर होता है, यह जान लेवा है…………सारा दिन मैं मरीज़ों के साथ इन के बारे में ही माथापच्ची करता रहता हूं ….जिस किसी को भी पूछता हूं कि भाई क्या आप को पता है कि इस के पैकेट पर क्या लिखा है, तो वह तुरंत कह देते हैं कि हां, पता है हमें यह बड़ी बड़ी बीमारी पैदा करता है लेकिन क्या करें, इस के बिना रह ही नहीं पाते।

ऐसे हालात में क्या हमें लगता है कि दवाईयों पर इस तरह की चेतावनी से हम जनमानस को एक इंफोर्मड-निर्णय लेने में सक्षम कर देंगे —मुझे तो नहीं लगता और कभी लगेगा भी नहीं क्योंकि कहां लिखा है कि यह सब हिंदी भाषा में लिखा जाएगा ….कितनी दवाईयों पर आपने चेतावनीयों को हिंदी में लिखा पाया है?
मुझे पता नहीं मैं अपनी दिल की बात आप तक पहुंचा पाया हूं कि नहीं…. लेकिन आप बहुत कुछ तो समझ ही चुके होंगे। इसलिए इस विषय पर आप भी सोचिए।

ध्यान तो यह भी आ रहा है कि यह तो वही बात हो गई कि हस्पतालों के बाहर ये तख्तियां लटका दी जाएं कि यहां इलाज अपने रिस्क पर करवाएं, डाक्टर वाक्टर कोई जिम्मेदार न होगा।  नहीं, साहब, यह आज के दौर की बातें नहीं है। जनमानस के प्रति हमारी प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है —हम भलीभांति जानते हैं कि लोग रैपर नहीं पढ़ते , लोग लापरवाह हैं, उन्हें इंगलिश का इतना ज्ञान नहीं है।

मैं यही सोच रहा हूं कि देश में बड़े से बड़े चिकित्सक हैं, उन को एक साथ बिठा कर इस बात को फैसला करवाओ ना कि दवाई बैन करनी चाहिए कि नहीं …..ध्यान यह भी आ रहा है कि क्या इस तरह के निर्णय के पीछे कि इस तरह की चेतावनी के साथ दवाई बेच दो, क्या इस निर्णय में इन अनुभवी चिकित्सकों की सहमति भी शामिल है क्या ।

लेख पढ़ते ही मेरा ध्यान तो इश्क के बीमार की तरफ़ ही चला गया कि ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया………….

डायबिटीज की इन दवाइयों में पाया जाने वाला पायोग्लीटाजोन नाम के फॉर्म्युले से शरीर में खासकर हार्ट में पानी जमने लगता है। साथ ही इससे कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी होने तक की आशंका होती है। इस कारण इसेप्रतिबंधित दवाओं की सूची में डाल दिया गया था।
(एनबीटी साइट से)
ऐसे अवसरों पर अपने कालेज के प्रोफैसरों की बातें अकसर मेरे कानों में गूंजती रहती हैं कि जो दवाईयां बहुत लंबे समय तक चल चुकी होती हैं उन की सेफ्टी प्रोफाइल के बारे में हम लोग अच्छे से जान लेते हैं …इसलिए नई नईं दवाईयों को अपनाते समय हमेशा इस बात को ध्यान में रखने की हमेशा हिदायत देते रहते थे। बात है भी सही, हम लोग जीते जागते लोगों की सेहत के जिम्मेदार हैं, केवल इस तरह की चेतावनी लिखने भर से क्या हमारा पिंड छूट जाता है ………नहीं यार बिल्कुल नहीं।

गर्भ नहीं फिर भी डॉक्टर अबॉर्शन के लिए तैयार

जब आप हिंदुस्तान जैसी अखबार के पहले पन्ने पर इस तरह की न्यूज-रिपोर्ट देखेंगे तो माथा ठनक जाता है … यह आज की अखबार के पहले पन्ने पर पहली खबर है । दरअसल यह हिन्दुस्तान न्यूज़-पेपर का स्टिंग ऑपरेशन था जिस में इस पेपर की रिपोर्टरों ने लखनऊ शहर के जाने-माने अस्पतालों और क्लीनिकों का जब जायजा लिया तो कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।

वैसे मैं तो इस का लिकं ही आपसे शेयर करना चाहता था लेकिन मुझे जब लाइव हिंदुस्तान की साइट पर इस का लिंक न मिल पाया तो मुझे इसे स्केन कर के आप तक पहुंचाना पड़ रहा है। कोई बात नहीं, थोड़ी मेहनत तो हुई लेकिन संसार को हमारे असली चेहरा तो दिखे —और चिंता का विषय़ यह है कि अगर इतने बड़े राज्य की राजधानी लखनऊ में यह सब हो रहा है तो क्या आप के शहर, कसबे, गांव में यह सब ना होता है, इस का निर्णय मैं आप के विवेक पर छोड़ता हूं।

हर बात स्टिंग आप्रेशन को स्टिंग कह कर झटकने से काम चलने वाला नहीं है, जिन्होंने यह सब किया उन के पास इन सब का प्रूफ़ तो निश्चित तौर पर होगा ही……………बहरहाल, हमारे मैडीकल गोरखधंधों की फहरिस्त में इसे भी शामिल कर लीजिए………………

 

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(इसे खबर को सही ढंग से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए)

 

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इस दूसरे पेज का आखिरी कालम स्केन नहीं हो पाया –इस का टैक्सट यहां लिख रहा हूं …
शाम 06 बजे …

गोलागंज में एक प्राइवेट क्लीनिक ….इस क्लीनिक में डॉक्टर की फीस तो 200रूपये है लेकिन यहां इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कुछ नहीं है। यहां तक कि यूरीन टेस्ट के लिए टॉयलेट भी बराबर के एक घर में है। यहां महिला स्टाफ भी नहीं है। लड़कियों को यूरीन टेस्ट कराना हो या प्रेग्नेंसी की जांच—- सारे कामों के लिए लड़के ही हैं। डॉक्टर की बातचीत के दौरान कॉन्ट्रासेप्टिव की जानकारी देने की बजाय शादी से पहले वर्जिनिटी न खोने की सलाह देना ज़्यादा ज़रूरी समझती हैं।प्रेग्नेंसी से कैसे बचा जाए..इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं कि हम भारत में रहते हैं न कि विदेश में। इसलिए शादी से पहले शारीरिक संबंधों से बचना चाहिए।

……………………………..

इस के बाद भी कुछ लिखने को क्या रह जाता है ………………कितना बदल गया इंसान!!

गुटखे की लत का इलाज — तंबाकू चबाना ??

अगर आप को ध्यान हो तो दो िदन पहले एम्स के एक जर्नल में बेबी फूड्स का एक विज्ञापन छपने पर कितना बवाल मचा। यह रहा इस का लिंक

आज मुझे यह ध्यान आ रहा था कि जिस तरह के प्रचार प्रसार जन मानस में किए जा रहे हैं उन की तरफ़ किसी को यहां तक मीडिया को भी देखने की क्यों फुर्सत नहीं है। सुबह एक मरीज आया –मुंह में तंबाकू की वजह से होने वाले सब तकलीफ़े दिख रही थीं। जब गुटखे तंबाकू के बारे में पूछा तो उस के कहने के अंदाज़ से यह लगा कि वह गुटखे को तो तंबाकू की तुलना में बड़ी हेय दृष्टि (इंफिरियर सी चीज़) से देखता है।

गुटखाकहने लगा कि गुटखा तो थोड़े ही साल खाया लेकिन जब से यह तंबाकू मिल गया है गुटखे की लत छूट गई है। मैं बड़ा हैरान हुआ कि इसे कौन सा ऐसा तंबाकू मिल गया–उस के बारे में जानने की मेरी उत्सुकता बढ़ गई।

वह भी कौन सा कम उत्साह में था, झट से उसने कमीज़ की ऊपरी जेब से तंबाकू का पैकेट मेरे सामने रख दिया। जब मैंने उस पैकेट को अच्छे से देखा तो सारी बात मेरी समझ में आ गई कि किस तरह से जनमानस सब कुछ जानते हुए भी गफ़लत की नींद में सो रहा है और हमारा मीडिया इंटरनेट पर बिक रहे मिल्क पावडर पर बवाल उठा रहा है।

गुटखा २

हां, तो इस के पाउप पर यह बोल्ड अक्षरों में यह लिखा है कि गुटखे की आदत छोड़ने का श्रेष्ठ उपाय …. और साथ में पब्लिक को चू….या बनाने के लिए यह भी जानकारी उस तंबाकू पाउच के दूसरी तरफ़ लिखी हुई थी ….

  • Best way to Quit Gutkha
  • Lime Mixed Tobacco
  • उन के लिए जिन्हें हमेशा चाहिएक कुछ खास
  • यह तंबाकू उत्कृष्ट मसालों और प्रकृतिक खुशबों से तैयार किया गया है..
  • इस तंबाकू को खाने के बाद मुंह से दुर्ग्ध नहीं आती है ..
  • इस तंबाकू को खैनी की तरह होंठो के बीच रखें लेकिन चबाएं नहीं और पूरा आनंद लें।
  • इसके सेवन से गुटखे की आदत से अतिशीध्र मुक्ति मिल जाती है।

बड़ा दुःख हुआ यह पाउच देख कर …इतना गुमराह करने वाले तथ्य… लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़—-लेकिन कसूर केवल बेचनों वालों का ही नहीं है, मैं अकसर मरीज़ों से पूछता हूं कि पता है ना गुटखे तंबाकू से शरीर पर किस तरह के बुरे प्रभाव पड़ते हैं, लेकिन वे कह देते हैं कि क्या करें, लत पड़ गई है।

मैंने अपने पास खड़े अपने अटैंडैंट से पूछा कि यह पाउच तो कह रहा है कि इस तंबाकू को चबाने से मुंह की दुर्गंध दूर हो जाती है, हम तो सारा दिन लोगों को इस दुर्गंध से निजात दिलाने के लिए इतनी मेहनत करते रहते हैं। यह सुन कर वह भी हंसने लगा।

जैसा कि मुझे अकसर करना पड़ता है और जो मेरा काम भी है मैंने १५-२० मिनट उस मरीज़ के साथ बिताए और उसे अच्छे से समझाने वाली बातें बता दीं, कह कर तो गया है कि चार पांच दिन बाद इस लत को छोड़ कर ही लौटेगा। चलिए तब तक आप इस एक अलग तरह की लत की बारे में सुन लीजिए —–इसे भी सुनना आप को शर्तिया अच्छा लगेगा।